महंगा, झूठा, लावारिश जीवन!
विश्वास नहीं हुआ! इतना महंगा होता जीवन! भला बच्ची का नर्सरी पढ़ाई खर्च पांच लाख रू सालाना! दिल्ली के एक मध्य श्रेणी के प्राइवेट स्कूल में सातवीं क्लास की बच्ची की सालाना फीस कोई दो लाख रू.! फिर पढ़ाई कैसी? दो साल क्या पढ़ाई थी? मेरी दसवीं की परीक्षा दे रहे एक छात्र से मुलाकात हुई। उसने बताया दो साल में दो दिन क्लास हुई। आठवीं पास करने के बाद वह दसवीं की बोर्ड परीक्षा दे रहा है। उसे गणित के पेपर की रात नींद नहीं आई। लेकिन पेपर हल्का था। ठिक हुआ। अच्छे अंकों की उम्मीद के साथ ग्यारहवीं का बोझ नहीं और अब बारहवीं में भी कॉलेज दाखिले वाले टेस्ट पर रहेगा फोकस।
मुझे बोर्ड परीक्षा के अपने दिन याद हो आए। तब कोर्स की पढ़ाई में खंपे रहते थे। जबकि अब पढ़ाई सेमेस्टर से विभाजित है। कोर्स के अधिक कोचिग और आगे के करियर की सोच में बच्चे तैयारी करते है। दोहरा-तिहरा खर्चा हो रहा है। बारहवीं के बाद केंद्रीकृत परीक्षा से दाखिले का नया झंझट पैदा होने वाला है। कोचिंग का धंधा भी बदलेगा। हर प्राइवेट कॉलेज, मेडिकल, इंजीनियरिंग, आईटी संस्थाएं, विश्वविद्यालय बेइंतहा फीस बढाते हुए। पढ़ाई के बहाने नहीं बल्कि सुविधाओं और महंगाई को हवाले। वहीं अभिभावक और बच्चे सिर्फ सरकारी नौकरियों व करियर कोचिंग की चिंता में। कौनसी पढ़ाई करें जिससे नौकरी गारंटीशुदा हो।
भारत विचित्र मुकाम पर है। केवल खाने-पीने, चिकित्सा, पढ़ाई और आवाजाही के चार क्षेत्रों में फैलाव इसलिए है क्योंकि देश की आबादी सुरसा की तरह बढ़ रही है। हर नया जन्म इकोनोमी के ट्रिलियन विस्तार और लूट व कमाई का नया जन्म। 140 करोड़ लोगों में 100 करोड लोग राशन के आटे-दाल, खैरात से जिंदा है और बीस करोड लोग यदि नौकरीपेशा, मध्यवर्गीय जिंदगी जीते हुए है तो रेस्टोरेंट, अस्पताल, स्कूल, ट्रांसपोर्ट की बेसिक जरूरतों का धंधा बढता हुआ होगा ही। वह सब महंगा होता हुआ है। चारों सेवाओं की मजबूरी में घटिया क्वालिटी और लूट की मनोदशा बन गई है। कोरोना ने स्कूलों, अध्यपाकों, और बच्चों में टाइमपास की आदत बनवा दी है। सर्व शिक्षा के पहले से चले आ रहे मॉडल में एक क्लास से पास कर दूसरी क्लास की आटोमेटिक सीढ़ी अपने आप है तो बोर्ड की परीक्षा पास किए बच्चों की साक्षरता का भी भगवान मालिक है। जो अभिभावक और बच्चे फोकस बनाए हुए होते है वे भी सिर्फ और सिर्फ सरकारी नौकरी, डाक्टर-इंजीनियर बनों और पहले दिन से टारगेट सोचे होते है कि नौकरी हुई तो पहले दिन से कितनी कमाई करेंगे। कैसे जुगाड बनाएंगे और कैसे लूटना है।
हो सकता है मैं गलत हूं लेकिन भारत समाज अब यही फोकस बनाए हुए हुए है कि बहती गंगा में मौका बनाना है। स्कूलों की फीस, कोचिंग से वसूलना है तो डाक्टरों की फीस का भगवान मालिक। वही इलाज रामभरोसे। भारत में हर प्रोफेशन अब अपनी सेवा और कीमत को बेरहमी से वसूलते हुए।
इसलिए क्योंकि मर्यादा कहां? नैतिक मूल्य क्या? रोक-टोक वाला कौन? भारत में अब सेवा, सुचिता, संजीदगी, ईमानदारी, सत्यता, कर्तव्य, आचरण-व्यवहार की शुद्धता में जीने का आग्रह कहां है? जब राष्ट्र धर्म में झूठ सर्वोपरी, एक-दूसरे को मूर्ख बनाने, झूठ बोलने, छल-कपट और पाखंड में जीना सहज स्वभाव है तो नागरिकों के व्यवहार में ईमानदारी और संजीदगी कैसे हो सकती है? सरकार ही जब झूठ बोलती है तो लोग क्यों नहीं बोलेंगे? जब सरकार खुद मनमानी महंगाई बनाए हुए है तो स्कूल, एयरलाइंस, ट्रांसपोर्ट कंपनियां, रेस्टोरेंट, कोचिंग वाले मनमानी फीस क्यों नहीं ले? जब सरकार अपनी ताकत से गुंडागर्दी कर रही है तो लोगों का व्यवहार क्यों न दादागिरी वाला बने? जब सरकार एक झूठ को सौ बार बोल कर उसे सत्य बना दे रही है तो पूरा देश क्यों न झूठा बने! जब सरकार ने सबको लावारिश, लंगूरी, झूठे जीवन के लिए छोड़ दिया है तो अध्यापक, डाक्टर, सर्विस प्रोवाइडर कैसे सच्चे बने रह सकते है? डाक्टर क्यों सेवाभावी रहे? क्यों कर्मचारी संवेदनशीलता से काम करें?
भारत कैसा ठूंठ, ठस्स और असंवेदनशील बना है इसका ताजा प्रमाण विश्व स्वास्थ्य संगठन, डब्ल्यूएचओ का यह कहना है कि भारत में कोरोना से 47 लाख लोग मरें। मगर भारत सरकार ने उसे झूठा करार दिया है। लोक अनुभव में भी लोग मानते हुए है कि सरकार ने कोरोना की मौते छुपाई। पर सरकार इस अंहकार में कि जो उसने कहां वही सत्य! तथ्यों से, अनुभव से, कथनी और करनी के अंतर से लोक मान्यता और वैश्विक जांचों, इंडेक्सों से जाहिर है कि भारत झूठ में जी रहा है। लोगों का जीना बहुत मुश्किल हो गया है। बावजूद इसके यह मनोरोग सभी और कि सब ठिक। दुनिया झूठी है और हम सच्चे! शिक्षा मे सत्यानाश है लेकिन सब तो ठिक है। लोग गर्मी और बिजली की कटौतियों से जूझते हुए लेकिन सब ठिक।
किसी दिन भारत के हिंदी और अंग्रेजी चैनलों को देखें। लगेगा मनोरोगियों का देश! सब एक दूसरे पर चिल्लाते हुए। एक दूसरे के कपड़े फाड़ते हुए। सब कूदते -उछलते हुए। चौबीसों घंटे मूर्ख बनाना और मूर्ख बनना। किसी को फर्क नहीं पड़ रहा है कि महंगाई कैसी बढ़ रही है? बच्चों की पढ़ाई कैसी हो रही है? भयावह गर्मी के बीच बिजली के कारखानों को कोयला क्यों नहीं पहुंच रहा? किसानों की गेंहूं की फसल का क्या हुआ या दुनिया में कैसे अछूत बने हुए है और कैसे वह हमें लूटते हुए है, हमारे जीवन को महंगा बना दे रहे है। शायद इसलिए कि उन्होने समझ लिया है कि भारत का क्या अर्थ हैं? चीन हो, रूस हो या योरोपीय देश, क्या कोई रहम करता हुआ है?