तपती धरती का जिम्मेदार कौन?
भारत में इस साल गर्मियां मार्च में ही शुरू हो गईं। फाल्गुन और चैत्र का महीना हल्की ठंड और मौसम के बदलाव वाला होता है। लेकिन इस साल होली से पहले ही गर्मी पड़ने लगी। सर्दियों के बाद बसंत का खुशनुमा मौसम नहीं आया। सीधे गर्मी आई। देश के 18 राज्यों के कम से कम 20 शहरों में तापमान 45 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया। उत्तर, पश्चिम और मध्य भारत के मैदानी इलाकों के अलावा पहाड़ों में भी इस साल अप्रैल में भीषण गर्मी पड़ी और तापमान सामान्य से चार-पांच डिग्री ऊपर रहा। हिमाचल प्रदेश जैसे पहाड़ी राज्य में इस साल अभी तक 21 दिन हीटवेव रही है और उत्तराखंड में चार दिन हीटवेव रही। भारतीय मौसम विभाग ने हीटवेव घोषित करने के लिए मैदानी इलाकों में 45 डिग्री, तटीय इलाकों में 37 डिग्री और पर्वतीय इलाकों में 30 डिग्री की सीमा तय की है। इसका मतलब है कि हिमाचल प्रदेश में 21 दिन और उत्तराखंड में चार दिन तापमान कम से कम 30 डिग्री से ऊपर रहा। जम्मू कश्मीर में भी 16 दिन हीटवेव रही।
एक तरफ यह स्थिति है कि पूरे देश में निर्धारित समय से एक-डेढ़ महीने पहले गर्मी शुरू हो गई और दूसरी ओर यह अध्ययन है कि भारत में ग्लेशियर नहीं पिघल रहे हैं और नदियों के सूखने का खतरा नहीं है। कैटो इंस्टीच्यूट के एक ताजा अध्ययन में आईपीसीसी के उस निष्कर्ष को खारिज किया गया है, जिसमें कहा गया था कि 2035 तक हिमालय के ग्लेशियर पिघल जाएंगे। इंटरनेशनल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज यानी आईपीसीसी ने 2007 में अपनी रिपोर्ट में 2035 हिमालय के सारे ग्लेशियर गायब हो जाने का अंदेशा जताया था। लेकिन अब कैटो इंस्टीच्यूट के रिसर्च फेलो स्वामीनाथन अंकलेश्वर अय्यर और विजय के रैना ने अपनी ताजा रिपोर्ट में बताया है कि हिमयुग की समाप्ति के बाद से यानी कोई साढ़े 11 हजार साल से ग्लेशियर पिघल रहे हैं पर निकट भविष्य में उनके खत्म होने की कोई संभावना नहीं है। इसके कम से कम तीन हजार साल तक बने रहने की संभावना है। आईपीसीसी और कैटो इंस्टीच्यूट के नतीजों में इतना बड़ा अंतर होना इस बात का सबूत है कि जलवायु परिवर्तन का अध्ययन बहुत अधूरा व सतही है और किसी को वास्तविकता का अंदाजा नहीं है।
वास्तविकता वह है, जो दिख रही है। मौसम के मिजाज का बदलाव दिख रहा है और आम लोग इसे महसूस कर रहे हैं। सर्दियों में भयानक ठंड, बारिश के मौसम में बेहिसाब बरसात और गर्मियों में आसमान से आग बरसने की गवाह पूरी दुनिया है। तभी इससे फर्क नहीं पड़ता है ग्लेशियर पिघलने को लेकर किसी इंस्टीच्यूट का अध्ययन क्या बताता है। हकीकत यह है कि अप्रैल के महीने में भारत के कई पर्वतीय इलाकों में, जंगलों में आग लगी है। पर्वतीय इलाकों में हीटवेव चल रही है और देश के उत्तर, पश्चिमी व मध्य भारत में गर्मी ने अप्रैल के महीने में 122 साल का रिकार्ड तोड़ा है। देश के बड़े हिस्से में अप्रैल में ऐसी गर्मी पड़ी है, जैसी 122 साल में नहीं पड़ी थी। अप्रैल के महीने में लू चलने का अनुभव कई इलाकों में पहली बार हुआ। सवाल है कि ऐसा क्यों हो रहा है? क्या मौसम का ऐसा मिजाज अचानक हुआ है या यह लंबे समय से हो रहे बदलाव का नतीजा है?
मौसम वैज्ञानिक देश में मार्च-अप्रैल में बढ़ी गर्मी के दो-तीन तात्कालिक कारण बता रहे हैं। एक कारण यह बताया जा रहा है कि पश्चिमी विक्षोभ की अनुपस्थिति की वजह से फाल्गुन-चैत्र के महीने में होने वाली बारिश नहीं हुई और उसी वजह से हीटवेव की स्थिति बनी। यह बात काफी हद तक तार्किक है क्योंकि भारत में बारिश आमतौर पर वेस्टर्न डिस्टरबेंस यानी पश्चिमी विक्षोभ की वजह से ही होती है। पर सवाल है कि इस साल पश्चिमी विक्षोभ की स्थिति क्यों नहीं बनी? एक दूसरे अध्ययन के मुताबिक पूर्वी व मध्य प्रशांत महासागर में ला नीना से जुड़ा एक उत्तर दक्षिण दबाव का पैटर्न होता है, जो सर्दियां खत्म होने के साथ ही खत्म हो जाता है। लेकिन इस बार यह ज्यादा समय तक बना रहा और इसने आर्कटिक क्षेत्र से आने वाली गर्म लहरों से हीटवेव का निर्माण किया। ध्यान रहे प्रशांत महासागर में ही समुद्र की सतह जब औसत से ज्यादा ठंड़ी हो जाती है तो भारत सहित कई देशों में शीतलहर चलती है।
इसका मतलब है कि भारत में कोल्डवेव या हीटवेव के लिए जितना जिम्मेदार घरेलू हालात हैं उतना ही या उससे ज्यादा हजारों किलोमीटर दूर की जलवायु के हालात भी जिम्मेदार हैं। प्रशांत महासागर और आर्कटिक में होने वाला जलवायु परिवर्तन भी सीधे भारत को प्रभावित करता है। उसकी वजह से अत्यधिक ठंड या गर्मी पड़ती है और ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि पिछले 70 साल में इंसानी गतिविधियों के कारण जलवायु में बहुत तेजी से परिवर्तन हुआ है। धरती लगातार गर्म होती जा रही है। 20वीं सदी और 21वीं सदी के पहले 22 साल में धरती 1.09 डिग्री ज्यादा गर्म हो गई है। इसका मुख्य कारण ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन है। पिछले दो-तीन दशक में इसे लेकर अनेक अध्ययन हुए हैं, जिनका साझा निष्कर्ष यह है कि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ने से पृथ्वी की सतह का तापमान बढ़ रहा है और जलवायु गर्म हो रही है। आईपीसीसी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि जैसे जैसे पृथ्वी की सतह का तापमान बढ़ेगा वैसे वैसे अत्यधिक बारिश, अत्यधिक ठंड और अत्यधिक गर्मी बढ़ती जाएगी। यानी मौसम सामान्य नहीं रह जाएगा। हर मौसम में अति होगी। सोच सकते हैं कि इंसान के जीवन पर इसका क्या असर होगा?
अभी देश में अत्यधिक गर्मी पड़ रही है तो हर हिस्से में त्राहिमाम की स्थिति है। बिजली की मांग इतनी बढ़ गई है कि उसे पूरा करने में देश के बिजली संयंत्र विफल हो रहे हैं। ज्यादातर ताप विद्युत संयंत्रों में कोयले की कमी हो गई है। भारी गर्मी का असर यह हुआ है कि कई राज्यों में रबी की फसल को 50 फीसदी तक नुकसान हुआ है। इसी तरह जब बारिश की अधिकता होगी तो बाढ़ आएगी, फसल तबाह होगी, पहाड़ टूटेंगे और लाखों लोगों का जीवन प्रभावित होगा। सर्दियों की अधिकता का भी ऐसा ही असर होगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी यूरोप यात्रा के दौरान कहा है कि जलवायु परिवर्तन में भारत का योगदान बहुत कम है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत औद्योगिक सघनता वाला देश नहीं है और न बहुत अमीर देश है, जहां ग्रीन हाउस गैस का बहुत ज्यादा उत्सर्जन होता है। इसलिए जलवायु परिवर्तन में भारत का योगदान बहुत कम है। परंतु जलवायु परिवर्तन का शिकार तो भारत भी उतना ही हो रहा है, जितना दूसरे विकसित या अमीर देश हो रहे हैं! सो, भारत और दूसरे विकासशील देशों को इस मसले पर ज्यादा गंभीरता से सोचने की जरूरत है क्योंकि जिनकी वजह से जलवायु परिवर्तन हो रहा है वे तो सक्षम हैं, अपने बचाव का रास्ता निकालने में पर उनके किए धरे की कीमत भारत और अन्य विकासशील या गरीब देशों को चुकानी पड़ेगी। तभी भारत को इस मामले में पहल करनी चाहिए और दूसरे देशों को साथ लेकर ग्रीन हाउस गैसों के अत्यधिक उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार देशों को सुधार के लिए बाध्य करना चाहिए।