जैविक खेती को अपनाना जरूरी

सत्य है कि कृषि फसलोपज प्रदान करने वाले हमारे खेत वर्तमान में यंत्रीकृत, प्रौद्योगिकी संचालित हो गये हैं और रिकॉर्ड तोड़ पैदावार कर रहे हैं, परन्तु यह भी परम सत्य है कि अधिकाधिक फसलोपज प्राप्ति के उद्देश्य से फसलों में प्रयुक्त की जाने वाली हानिकारक रसायनों और कीटनाशकों ने हमारे भोजन को विषाक्त बना दिया है। उत्पादन बढ़ाने के उद्देश्य से कीटों को मारने के लिए उपयोग किये जाने वाले कीटनाशकों के अवशेष फसल में बरकरार रहते हैं, जिससे भोजन अस्वस्थ बन जाता है और कुछ मामलों में तो विषाक्त हो जाता है। परिणामस्वरुप मनुष्यों में विभिन्न प्रकार की स्वास्थ्य जटिलताएं पैदा हो रही हैं, और खेती-बारी में कीटनाशकों और खरपतवार नाशकों के अंधाधुंध प्रयोग के कारण गुर्दे, त्वचा ,बांझपन, अल्सर और कैंसर की बीमारियाँ तेजी से बढ रही हैं।

यह सर्वविदित है कि अधिकाधिक फसलोपज प्राप्ति के लिए किसानों के द्वारा खेत की बेहतर तैयारी, उन्नत बीज, संतुलित खाद व सिंचाई आदि हरसम्भव प्रयास किया जाता है, फिर भी फसलों में रोग व कीटों का प्रकोप हो ही जाता है। उनकी रोकथाम के लिए किसानों के द्वारा रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल किया जाता है, जो फसल और भूमि के साथ ही किसानों के लिए भी हानिकारक सिद्ध हो रहा है। कीटनाशकों के माध्यम से फसल के द्वारा कुछ विषैले तत्व मनुष्य के शरीर में पहुँचते हैं, वहीं कीटनाशकों के छिड़काव के दौरान कई किसान अपनी जान भी गवाँ बैठते हैं।

हम वैसे भी अपनी पुरातन संस्कृति को छोड़ पाश्चात्य संस्कृति के अनुकरण करने के आदि हो चुके हैं, इसलिए भारतीय विद्वानों की बातें छोड़िये, परन्तु पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार और पश्चिम की देशों से आ रही खबरों के अनुसार भी हमारी थाली में जहर परोसा जा रहा है । अभी कुछ वर्ष पूर्व ही भारतीय फल, सब्जियों और चाय को यूरोपियन यूनियन के देशों और सऊदी अरब ने जहरीला बताते हुए आयात पर अस्थायी प्रतिबंध लगा दिया था। 2004 में महाराष्ट्र के अंगूरों में ज्यादा कीटनाशक पाये जाने पर जापान ने अंगूर लदा जहाज लौटा दिया था। यह अत्यन्त आश्चर्य का विषय है कि भारतीय चाय में अभी भी डीडीटी नामक कीटनाशक की मात्रा पायी जाती है, जबकि डीडीटी 1972 से और डेलड्रीन जैसी घातक कीटनाशक 1970 से ही अमेरिका में प्रतिबंधित है, परन्तु खेद की बात है कि हमारे चाय बगानों में और अन्य स्थानों पर फसलों में यह बहुतायत में प्रयोग हो रहा है। हमारे देश में अब तक लगभग 190 प्रकार के रसायनों, कीटनाशकों और फफूंदीनाशकों का निबंधन अर्थात पंजीयन हुआ है, जिनमें से केवल 50 की बर्दास्त क्षमता से हम भिज्ञ हैं अर्थात जिन्हें हम जानते हैं। इनके अतिरिक्त नकली दवाओं की लम्बी सूची भी है।

मासेलकर समिति की सिफारिश पर संसद में संशोधन विधेयक यही सोच कर लाया गया था कि रसायनों के विक्री पर कुछ नकेल लगे, परन्तु बात नहीं बनी और डीडीटी, बीएचसी, काबरेनेट, इंडोसल्फान, डेलड्रीन जैसे रसायन, कृषि एवं स्वास्थ्य क्षेत्र में धड़ल्ले से प्रयुक्त हो रहे हैं, जो बाहर के देशों में प्रतिबंधित हैं । देश में कुल 40 से भी अधिक ऐसी दवायें कृषि क्षेत्र में प्रयोग में लायी जा रही हैं, जो बाहर प्रतिबंधित हैं । हमारे देश में कीटनाशकों का क्रय-विक्रय नियंत्रित नहीं है ।

कीटनाशकों के प्रयोग में बरती जाने लापरवाही से न केवल प्रयोगकर्ता के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है, अपितु हवा, पानी और सभी खाद्य पदार्थ विषैले हो रहे हैं । विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक प्रतिवेदन के अनुसार, माँ के दूध में डीडीटी की मात्रा, मनुष्य के शरीर के लिए निर्धारित सामान्य मात्रा से 77 गुना अधिक हो चुकी है । कुछ वर्ष पूर्व अहमदाबाद स्थित कंज्यूमर एजूकेशन एंड रिसर्च सोसायटी ने अपने अध्ययन में आटे की एक मशहूर ब्राण्ड में खतरनाक रसायन लिंडेन पाया था। चिन्ताजनक बात यह है कि पानी के विषैला होने से जमीन की ऊर्वरता घट रही है और पानी में रहनेवाले तमाम उपयोगी जीव-जन्तुओं और मछलियों की प्रजातियाँ लुप्तप्राय होने लगी हैं । कारखानों के विषैले कचरे नदियों में गिर कर मछलियों को विषाक्त करते हैं । एक सर्वेक्षण के अनुसार कीटनाशक, हाइड्रोकार्बन और भारी धातुओं के अवशेष मछलियों में भारी मात्रा में मौजूद पायी गई हैं, इसलिए कई स्थानों में पायी जाने वाली मछलियाँ खाने योग्य नहीं हैं। पशु-पक्षी विषैले खाद्य पदार्थो और वनस्पतियों को खाकर मर रहे हैं । गौरैया और कई अन्य पक्षियाँ विलुप्त होने के कगार पर हैं। डिक्लोफैनक नामक दवा से जानवरों का मांस जहरीला हो गया है, जो गिद्धों के विलुप्त होने का कारण बन रहा है।

फलों को जल्द मुनाफा कमाने के लिए कार्बाइड से पकाया जाता है।परिणामस्वरूप सब्जियों-फलों के छिलकों में घुला कीटनाशक हमारे शरीर में पहुँच रहा है। दुधारू पशुओं के स्तनों में आक्सीटोक्सीन सूई लगा कर दूध निकाला जा रहा है, जो हारमोंस अंसुतलन, गुर्दे की खराबी, कैंसर और बच्चों में मानसिक विकृतियाँ पैदा कर रहा है। हालांकि पशुक्रूरता निवारण अधिनियम 1960 की धारा 12 के तहत यह अपराध है। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च ने कुछ साल पहले 2,205 गायों-भैंसों के दूध का परीक्षण कर पाया कि 85 प्रतिशत जानवरों में कीटनाशकों की मात्र, भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा निर्धारित मात्रा से अधिक है।

एक सर्वेक्षण के अनुसार भटिंडा व वारांगल में सबसे ज्यादा कीटनाशकों का प्रयोग हुआ है, इसलिए यहाँ सबसे ज्यादा बांझपन और कैंसर के मरीज बढ़े हैं। भटिंडा के ज्यादातर जमीनी पानी में क्लोराइड की मात्र तय मानक से ज्यादा है, इसलिए वहाँ की जमीन बंजर हो रही है। उपज को बढ़ाने के लिए उर्वरकों और रसायनों का अत्यधिक उपयोग मिट्टी के प्राकृतिक पोषक तत्वों को भी नष्ट कर देता है।

हाल में प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने प्राकृतिक खेती को अपनाने के लिए किसानों से प्राकृतिक खेती को जनआंदोलन बनान का आव्हान किया है। आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में मां भारती की धरा को रासायनिक खाद और कीटनाशकों से मुक्त करने का संकल्प लेने का आह्वान स्वयं प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के द्वारा केंद्रीय मंत्री अमित शाह और नरेंद्र सिंह तोमर की उपस्थिति में प्राकृतिक और जीरो बजट फार्मिंग पर गुजरात में सम्पन्न एक कार्यक्रम के वर्चुअली कार्यक्रम में किसानों को संबोधित करते हुए किये जाने से सरकार की इसके प्रति प्रतिबद्धता व संजीदगी का अहसास होता है।

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