लोकप्रिय नैरेटिव से बाहर है कांग्रेस

कांग्रेस पिछले एक दशक से ज्यादा समय से चुनाव हार रही है। लेकिन उससे पहले जब वह जीती और दो बार लगातार केंद्र में सरकार में रही तब भी उसका लोकप्रिय समर्थन अधिक नहीं था। जब वह कई राज्यों में सरकार में थी और केंद्र में भी उसकी सरकार थी तब भी कांग्रेस का जनाधार घट रहा था। कारण था भगवा रंग। वह भगवा, हिंदू विमर्श से बाहर होती गई। हालिया महाकुंभ प्रायोजित मगर लोकप्रिय विमर्श था। उत्तर भारत के हर गांव, घर में पिछले दो महीने से सिर्फ महाकुंभ की चर्चा थी। लेकिन कांग्रेस कहीं भी उस चर्चा का हिस्सा नहीं बन पाई क्योंकि वह इस लोकप्रिय नैरेटिव से बाहर थी। कई दशक पहले से ऐसे ही थी लेकिन वास्तविक अर्थों में 1989 से कांग्रेस की गिरावट है। पिछली सदी के आखिरी एक दशक में दो लोकप्रिय विमर्श हुए थे। पहला, अयोध्या में राम मंदिर का आंदोलन और दूसरा पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण देने वाले मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करना। इन दोनों लोकप्रिय राजनीतिक विमर्शों में से कांग्रेस नदारद थी या फिर रिसीविंग एंड पर थी। यानी वह सबके हमले का निशाना बनी रही। हर तरफ से इन दोनों के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया गया था।

हैरानी नहीं है जो पिछले साढ़े तीन दशक से ये ही दोनों नैरेटिव किसी न किसी रूप में भारतीय समाज और राजनीति दोनों को गाइड कर रहे हैं। पिछले 35 साल में मंदिर और मस्जिद का नैरेटिव स्थापित हुआ है और चला है या फिर आरक्षण का विमर्श चला है। इन 35 वर्षों में कांग्रेस 15 साल सत्ता में रही लेकिन न तो वह इन दोनों विमर्शों का हिस्सा बनी और न इसे बदलने के लिए उसने कोई वैकल्पिक नैरेटिव खड़ा किया। सोचें, कांग्रेस के पास 1991 से 1996 तक का कैसा मौका था! उस समय वह चाहती तो मंदिर और आरक्षण यानी धर्म और जाति के राजनीतिक विमर्श को आर्थिक और विकास के विमर्श में बदल सकती थी। लेकिन उसने नहीं किया। नरसिंह राव की सरकार ने देश की अर्थव्यवस्था को उदारीकरण के रास्ते पर लाकर बड़ा मौका दिया था। अगर कांग्रेस उनके साथ ईमानदारी से खड़ी होती तो सारे विमर्श बदल जाते। देश में उद्योग धंधे लगते, रोजगार और नौकरियों के नए अवसर बनते, भारत वैश्विक प्रतिस्पर्धा में शामिल होता लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। जो हुआ उसका आकार बहुत छोटा और रफ्तार बहुत धीमी रही। इसका कारण यह था कि कांग्रेस के नेता सोनिया गांधी के प्रति अपनी निष्ठा साबित करने में लगे रहे। इसके लिए जरूरी था कि नरसिंह राव जो कर रहे थे उसको कमतर दिखाया जाए। इस चक्कर में कांग्रेस पार्टी मंदिर और आरक्षण की राजनीति करने वाली भाजपा व समाजवादी पार्टियों के साथ खड़ी हो गई। हालांकि वह उस विमर्श का हिस्सा भी नहीं बन सकी। सिर्फ तमाशबीन पार्टी बन कर रह गई।

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