‘एक देश, दो चुनाव’ ज्यादा बेहतर विकल्प है
देश में हर साल चुनाव हो या हर छह महीने पर चुनाव हो यह सचमुच अच्छी बात नहीं है। लेकिन इसे रोकने के लिए ‘एक देश, एक चुनाव’ का आइडिया भी ठीक नहीं है। इसका मतलब है कि हर छह महीने पर चुनाव की मौजूदा प्रक्रिया चलती रहे यह भी ठीक नहीं है और सारे चुनाव एक साथ कराए जाएं, यह विचार भी अच्छा नहीं है। इसलिए बीच का रास्ता निकालना सबसे अच्छी बात होगी। बीच का रास्ता क्या हो सकता है, उस पर विचार से पहले यह स्पष्ट करना जरूरी है कि भारत जैसे विशाल और विविधता वाले देश में एक बार में सारे चुनाव कराने का विचार लोकतंत्र की बुनियादी भावना और संघवाद की धारणा को कुछ न कुछ जरूर प्रभावित करेगा। भले यह लोकतंत्र या संघवाद के पूरी तरह खिलाफ नहीं हो लेकिन इन दोनों सिद्धांतों पर इसका निश्चित असर होगा।
अगर सारे चुनाव एक साथ होते हैं तो संचार तकनीक के मौजूदा दौर में प्रदेशों के और विधानसभा स्तर के स्थानीय मुद्दे गौण हो जाएंगे। उसकी बजाय राष्ट्रीय मुद्दे अहम हो जाएंगे। अभी ही नरेंद्र मोदी से लेकर अरविंद केजरीवाल तक अनेक नेता ऐसे हैं, जो कहते हैं कि हर सीट पर वे ही चुनाव लड़ रहे हैं। यानी मतदाताओं को उम्मीदवार नहीं देखना चाहिए और नेता का चेहरा देख कर वोट करना चाहिए। ‘एक देश, एक चुनाव’ की स्थिति में यह विचार प्रमुखता पा जाएगा। उससे स्थानीय मुद्दों के साथ साथ स्थानीय नेताओं का महत्व भी कम होगा और छोटे छोटे काम कराने में भी आम लोगों को परेशानी होगी। इसके अलावा कई और व्यावहारिक समस्याएं आएंगी। जैसे समय से पहले लोकसभा या किसी राज्य की विधानसभा भंग होने पर वहां बची हुई अवधि के लिए चुनाव कराना होगा। इससे बार बार चुनाव की संभावना तो बनी ही रहेगी और साथ ही चुनाव खर्च में कटौती का तर्क भी ध्वस्त हो जाएगा। एक साथ चुनाव कराने से पहले लोकसभा के कार्यकाल के साथ राज्यों की विधानसभाओं की एकरूपता बनाना भी एक बड़ी तकनीकी कवायद होगी।
तभी ‘एक देश, एक चुनाव’ के भारी भरकम कवायद में पड़ने की बजाय मौजूदा प्रक्रिया में सुधार करके इसे बेहतर बनाया जा सकता है। हैरानी की बात यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले 10 साल से ज्यादा समय से ‘एक देश, एक चुनाव’ की बात कर रहे हैं लेकिन हर साल या हर छह महीने पर होने वाले चुनाव की प्रक्रिया को बदलने के लिए उन्होंने कोई ठोस पहल नहीं की। अगर सरकार और चुनाव आयोग चाहते तो अब तक देश में चुनाव की प्रक्रिया पटरी आ चुकी होती। हर छह महीने में चुनाव कराने की जरुरत ही नहीं रह जाती। इसके लिए बहुत छोटे छोटे बदलाव करने थे। दूसरी अहम बात यह है कि पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने की बजाय दो चरण में चुनाव कराने का विचार ज्यादा व्यावहारिक है। लोकसभा के साथ आधे राज्यों के चुनाव कराए जा सकते हैं और बाकी आधे राज्यों के चुनाव दो या ढाई साल के अंतराल पर कराए जा सकते हैं।
पांच साल में दो बार चुनाव का विचार इसलिए व्यावहारिक है कि दो बार चुनाव कराने में ज्यादा बोझ नहीं पड़ेगा और दूसरे अगर पहले चरण के किसी चुनाव वाले राज्य में या केंद्र में सरकार गिरती है और विधानसभा या लोकसभा भंग होती है तो अगले चुनावी चक्र के लिए लंबा इंतजार नहीं करना होगा। अमेरिका में दो बार में चुनाव होते हैं। राष्ट्रपति के चार साल के कार्यकाल के ठीक बीच में यानी उसके चुनाव के दो साल बाद मध्यावधि चुनाव होते हैं और उस समय संसद के निचले सदन यानी हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव्स के 435 सदस्य और सीनेट के 33 या 34 सदस्यों का चुनाव होता है। साथ ही देश के 50 राज्यों में से 34 राज्यों के गवर्नर का चुनाव मध्यावधि चुनाव के समय होता है। भारत में भी इस तरह की व्यवस्था बनाई जा सकती है। लोकसभा के चुनाव के साथ कुछ राज्यों के चुनाव हो जाएं और उसके ठीक ढाई साल बाद मध्यावधि चुनाव हों, जिनमें बाकी राज्यों के चुनाव कराए जाएं। अगर सरकार इस विचार के प्रति सचमुच गंभीर होती तो पहले ही यह प्रयास शुरू हो गया होता और अब तक सब कुछ पटरी पर आ गया होता।
मिसाल के तौर पर इस साल लोकसभा के साथ चार राज्यों आंध्र प्रदेश, ओडिशा, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश के चुनाव हुए। इससे एक साल आगे पीछे में 14 राज्यों के चुनाव हुए हैं या होंगे। पिछले साल यानी 2023 में नौ राज्यों के चुनाव हुए थे। फरवरी 2023 में त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड से इसकी शुरुआत हुई थी। मई में कर्नाटक का चुनाव हुआ था और नवंबर में राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में चुनाव हुए। लोकसभा चुनाव के बाद जम्मू कश्मीर, हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव हुए और अगले साल फरवरी में दिल्ली का चुनाव होगा। सो, लोकसभा के साथ चार और उसके एक साल आगे पीछे 14 राज्यों के चुनाव हुए हैं।
इनके कार्यकाल में थोड़ा बहुत बदलाव करके लोकसभा और 18 राज्यों के चुनाव एक साथ हो सकते हैं। अगर पिछले साल फरवरी में हुए पूर्वोत्तर के तीन राज्यों को छोड़ दें और फरवरी 2025 के दिल्ली चुनाव को छोड़ दें तो 10 राज्यों के कार्यकाल में ज्यादा से ज्यादा छह महीने की कमी या बढ़ोतरी करनी होगी। यह काम बहुत आसानी से किया जा सकता था। एक बार लोकसभा के साथ 15 या 18 राज्यों के चुनाव होने लगते तो दूसरे चरण में बाकी राज्यों के चुनाव कराए जा सकते थे। दूसरा चरण 2026 के मध्य में हो सकता था। मई 2026 में पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और पुड्डुचेरी में चुनाव होने हैं। उससे पहले नवंबर 2025 में बिहार का चुनाव है और मार्च 2027 में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर और गोवा का चुनाव होना है। सभी पार्टियों की सहमति से मध्यावधि चुनाव के तौर पर इन सारे राज्यों के चुनाव दूसरे चरण में कराए जा सकते हैं। इसके बाद बचे हुए राज्य गुजरात और हिमाचल प्रदेश हैं, जहां नवंबर 2027 में चुनाव होंगे। इनका चुनाव अगर 2026 में कराया जाता है तो विधानसभा का कार्यकाल डेढ़ साल घटाना पड़ेगा। एक बार के बाद सारी चीजें व्यवस्थित हो जातीं। अगर अच्छी मंशा से सरकार और चुनाव आयोग इस तरह की पहल करते हैं तो इस पर सभी पार्टियों में सहमति बनाने में ज्यादा समस्या नहीं आएगी।
दुर्भाग्य से अभी तक अच्छी मंशा के साथ चुनाव प्रक्रिया को बेहतर बनाने या हर छह महीने में होने वाले चुनाव को एक साथ लाने की कोई पहल नहीं हुई है। उलटे अभी दिखा कि चुनाव आयोग ने लोकसभा चुनाव के बाद चार राज्यों के चुनाव दो बार में कराए। पहले जम्मू कश्मीर और हरियाणा का चुनाव हुआ और उसके बाद महाराष्ट्र और झारखंड का चुनाव हुआ। चुनाव आयोग ने 2022 में हिमाचल प्रदेश और गुजरात का चुनाव भी अलग अलग कराया। लोकसभा के साथ 14 राज्यों की 47 विधानसभा सीटों और दो लोकसभा सीटों पर भी चुनाव आयोग ने दो बार में चुनाव कराए। एक तरफ तो चुनाव आयोग ने चुनावों को खुद ही इतना बिखरा रखा है और ऊपर से ‘एक देश, एक चुनाव’ का जुमला बोला जाता है।
वैसे भी ‘एक देश, एक चुनाव’ के पक्ष में जो दो मुख्य तर्क दिए जाते हैं कि इसमें बहुत खर्च होता है और आचार संहिता की वजह से कामकाज प्रभावित होता है उनका कोई ठोस आधार नहीं है। चुनाव अलग अलग हों या एक साथ उससे चुनाव खर्च पर ज्यादा अंतर नहीं पड़ता है और जहां तक आचार संहिता का सवाल है तो अगर मौजूदा प्रक्रिया से ही चुनाव होता है तब भी देश में एक बार और राज्यों में ज्यादा से ज्यादा दो बार आचार संहिता लगेगी। अगर दोनों मिला कर 60 महीने में तीन चार महीने आचार संहिता रहती है तो भी कामकाज पर कोई असर नहीं पड़ता है। ध्यान रहे आचार संहिता से कोई कामकाज नहीं रूकता है। जो काम पहले घोषित हो गए होते हैं या शुरू हो गए होते हैं वे चलते रहते हैं और किसी इमरजेंसी की स्थिति में चुनाव आयोग की मंजूरी से नीतिगत फैसले भी हो सकते हैं। बहरहाल, चुनाव आयोग सभी पार्टियों की सहमति से देश भर के चुनाव दो चरण में कराने पर सहमति बनाने का प्रयास कर सकता है। इसके अलावा भी कुछ बड़े चुनाव सुधारों की जरुरत है।