अर्थव्यवस्था में कुछ बुनियादी गड़बड़ है
देश की अर्थव्यवस्था में कुछ बुनियादी गड़बड़ी है और इसे समझने के लिए बड़ा अर्थशास्त्री होने की जरुरत नहीं है। सिर्फ हाल की कुछ खबरों को एक साथ रख कर देखा जाए तब भी यह अंदाजा हो जाता है कि कुछ न कुछ तो गड़बड़ है। अन्यथा ऐसा नहीं होता कि मुनाफे का ढोल पीट रहे तमाम बैंकों के परेशान होने की खबर आए और शेयर बाजार में उछाल जारी रहे। या चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की विकास दर अनुमान से कम रहे और रिजर्व बैंक के गवर्नर को कहना पड़े कि सरकारी खर्च से अर्थव्यवस्था का पहिया चल रहा है।
ऐसे ही सरकारी खर्च में कमी आने से विकास दर में कमी आई है या नई फसल आने के बाद भी गेहूं की कीमतों में कमी नहीं आए या कार के दुनिया के सबसे बड़े बाजार में हजारों कारें अनबिकी रह जाएं! या बाजार में मांग नहीं बढ़ने के बावजूद कंपनियों का मुनाफा बढ़े। ये सारी चीजें हो रही हैं इसका मतलब है कि अर्थव्यवस्था की माइक्रो तस्वीर ठीक नहीं है।
इसको समझने के लिए शुरुआत विकास दर के ताजा आंकड़ों से करते हैं। चालू वित्त वर्ष यानी 2024-25 की पहली तिमाही में अप्रैल से जून के बीच विकास दर 6.7 फीसदी रही, जबकि रिजर्व बैंक का अनुमान था कि विकास दर 7.1 फीसदी रहेगी। यह आंकड़ा जारी हुआ तो रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने कहा कि सरकारी खर्च में कमी आने से विकास दर प्रभावित हुई है। चुनाव अभी खत्म हुए हैं, जिसके बाद सरकारी खर्च में कमी आई है और आगे भी यह कमी रहेगी तो क्या विकास दर इसी तरह से कमजोर रहेगी?
ध्यान रहे कई संस्थाओं ने भले पूरे साल की विकास दर सात फीसदी या उससे ज्यादा रहने का अनुमान जताया है लेकिन वस्तुनिष्ठ अनुमान यही है कि पूरे वित्त वर्ष की विकास दर साढ़े छह फीसदी से ज्यादा नहीं रहेगी। बहरहाल, शक्तिकांत दास ने सरकारी खर्च से अर्थव्यवस्था चलने की बात की पुष्टि कर दी है। हाल ही में जाने माने लेखक रूचिर शर्मा की किताब आई है, ‘व्हाट वेंट रॉन्ग विद कैपिटलिज्म’।
इसमें अमेरिकी अर्थव्यवस्था के बहाने उन्होंने समझाया है कि कैसे समय के साथ सरकारी खर्च और सरकारी कर्ज बढ़ते जा रहे हैं और कैसे पूंजीवाद और जॉन मैनयार्ड कीन्स के सिद्धांत विफल हो रहे हैं और कैसे सचमुच पूंजीवाद ‘सबसे अमीर लोगों के समाजवाद’ में तब्दील होता जा रहा है।
बहरहाल, सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में विनिर्माण सेक्टर, जिसका जीडीपी में हिस्सा 17 फीसदी है वह सात फीसदी की दर से बढ़ा है। यह पिछले साल की पहली तिमाही के मुकाबले लगभग दो फीसदी कम है। कारोबार या होटल सेक्टर हो और वित्त या रियल इस्टेट का सेक्टर हो, सबमें पिछले साल के मुकाबले कमी आई है। कृषि सेक्टर में जरूर पिछले साल के मुकाबले थोड़ी बढ़ोतरी हुई है लेकिन फिर वह दो फीसदी पर है।
तभी आर्थिकी के जानकार मान रहे हैं कि आने वाले दिनों में इस स्थिति में बहुत सुधार नहीं होने वाला है क्योंकि बाजार में मांग नहीं बढ़ रही है। ‘फाइनेंशियल एक्सप्रेस’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक इन्वेंटरी टू सेल्स का अनुपात 65 फीसदी से ऊपर हो गया है। इसका मतलब है कि कंपनियों ने उत्पादन कर लिया है लेकिन 65 फीसदी माल उनके गोदाम में पड़ा है। कोरोना महामारी को छोड़ दें तो यह पिछले करीब 10 साल में सबसे खराब स्थिति है। कोरोना से पहले यह अनुपात 44 फीसदी का था, जो कोरोना के समय बढ़ कर 113 फीसदी हो गया था। अब भी यह 65 फीसदी है।
अगर उत्पादन का 65 फीसदी माल गोदामों में पड़ा है तो जाहिर है कि आने वाले दिनों में कंपनियों को उत्पादन कम करना होगा। इस सिलसिले में एक मिसाल कारों की बिक्री की दी जा सकती है। भारत में कंपनियों के पास 73 हजार करोड़ रुपए की कीमत की बनी हुई कारें पड़ी हैं।
कंपनियां अपना पिंड छुड़ाने के लिए कारें डीलर्स को सौंप रही हैं और डीलर्स बैंक से कर्ज लेकर कंपनियों को भुगतान कर रहे हैं। इस दुष्चक्र में कंपनियां, डीलर और बैंक तीनों फंसे हैं। अब उम्मीद की जा रही है कि भादो और श्राद्ध बीतने के बाद त्योहारों के सीजन में बिक्री बढ़ेगी तो कुछ स्टॉक खाली होगा।
यह भी रहस्य सुलझाने की जरुरत है कि आखिर ऐसा कैसे हो रहा है कि कंपनियों की बिक्री नहीं बढ़ रही है लेकिन उनका मुनाफा बढ़ रहा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक बिक्री नौ फीसदी की दर से बढ़ रही है और मुनाफा 20 फीसदी की दर से बढ़ रहा है। माना जा रहा है कि कंपनियां मांग कम होने की वजह से छंटनी कर रही हैं, लोगों को हटा रही हैं, खर्च में कमी कर रही हैं, कीमतें बढ़ा रही हैं और इस तरह अपना मुनाफा बड़ा कर रही हैं। यह बड़े संकट का संकेत हैं।
अगर बाजार में मांग नहीं लौटती है तो कंपनियां उत्पादन घटाएंगी और नए रोजगार के अवसर नहीं बनेंगे और ऐसे मे महंगाई कम होने के भी आसार नहीं दिख रहे हैं। महंगाई तो वैसे भी कम नहीं हो रही है। आंकड़े जो कहें हकीकत यह है कि रबी की नई फसल आ जाने के बाद भी गेहूं की कीमतों में कोई कमी नहीं आई है। इसका असर खाने पीने की चीजों पर चौतरफा दिखाई देगा।
आम आदमी और अर्थव्यवस्था पर इसका असर कई तरह से लेकिन एक असर तो यह है कि बैंकों में जमा कम हो रहा है और कर्ज की दर बढ़ रही है। बैंकों में जमा की दर 10.7 फीसदी की दर से बढ़ रही है, जबकि कर्ज 13.7 फीसदी की दर से बढ़ रहा है। जमा और कर्ज की दर में इस अंतर का दबाव बैंक महसूस करने लगे हैं। बैंकों की मुश्किल यह है कि एफडी पर ब्याज दर कम करेंगे तो जमा और प्रभावित होगा नहीं करते हैं तो खर्च कम नहीं हो पा रहा है।
इस बीच दुनिया भर में ब्याज दरों में कटौती का सिलसिला शुरू हो गया है। सवाल है कि क्या इस वजह से घरेलू निवेशक बैंक छोड़ कर शेयर बाजार पर टूट पड़ें हैं? किसी को यह तिलिस्म समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर शेयर बाजार में इतना निवेश और इतनी तेजी कैसे है। शेयर बाजार में अनाप शनाप निवेश हो रहा है। छोटी छोटी कंपनियां आईपीओ ला रही हैं।
एसएमई यानी छोटे और मझोले उद्यमों के आईपीओ का रहस्य सबसे गहरा है। एक कंपनी ने पिछले दिनों आईपीओ लॉन्च किया, जिसके सिर्फ दो शोरूम और आठ कर्मचारी हैं। उसने 12 करोड़ रुपए जुटाने के लिए आईपीओ पेश किया और उसकी बुकिंग 48 सौ करोड़ रुपए की हुई। अभी बजाज फाइनेंस का मामला और बड़ा है। उसका आईपीओ 62 सौ करोड़ रुपए का है लेकिन बुकिंग तीन लाख 20 हजार करोड़ रुपए की हुई है। कुल मिला कर ऐसा लग रहा है कि अर्थव्यवस्था अनियंत्रित और बेलगाम है। कहीं कुछ भी हो रहा है। आर्थिकी के नियम काम नहीं कर रहे हैं और न कोई नियामक इसमें कुछ कर पा रहा है।