धार चूक गई है

पुराने फॉर्मूलों से आगे निकलने की बौद्धिक क्षमता सत्ताधारी दल नहीं दिखा पाया है। जबकि आम तजुर्बे और यहां तक कि 2024 के चुनाव नतीजों से भी यह स्पष्ट है कि इन फॉर्मूलों में अब जन समर्थन के विस्तार की क्षमता नहीं रह गई है।

प्रधानमंत्री ने संसद के दोनों सदनों में लंबे भाषण दिए। लेकिन नए कार्यकाल में नरेंद्र मोदी ने नया क्या कहा, यह उन भाषणों में ढूंढना मुश्किल हो सकता है। बल्कि उनके भाषण पूर्व दो कार्यकाल में राष्ट्रपतियों के 10 अभिभाषणों के उनके जवाब की पुनरावृत्ति मालूम पड़े। उन्हीं मौकों की तरह निशाने पर कांग्रेस रही, राहुल गांधी को दिमागी तौर पर अविकसित बताने की कोशिश हुई, उनकी बातों को संदर्भ से काट कर तिल का ताड़ बनाने की कोशिश हुई, गुजरे दशकों की कथित नाकामियों की बात जवाहर लाल नेहरू तक पहुंची, और फिर कुछ ऐसे दावे हुए, जिनकी असलियत धीरे-धीरे साफ होती गई है।

स्पष्टतः पुराने फॉर्मूलों से आगे निकलने की बौद्धिक क्षमता सत्ताधारी दल नहीं दिखा पाया है। जबकि आम तजुर्बे और यहां तक कि 2024 के चुनाव नतीजों से भी यह स्पष्ट है कि इन फॉर्मूलों में अब जन समर्थन के विस्तार की क्षमता नहीं रह गई है। बल्कि अब उनके प्रभाव में सिकुड़न शुरू हो चुकी है। इसके बावजूद भाजपा नेतृत्व ने अपनी राजनीति के पुनर्आविष्कार की संभवतः जरूरत नहीं समझी है।

इसके बजाय उसका जोर निरंतरता पर है। जबकि यह निरंतरता सार्वजनिक विमर्श में अब उबासी की वजह बन रही है। इस परिस्थिति में सत्ता पक्ष के लिए राहत की बात सिर्फ यह है कि विपक्ष भी किसी सकारात्मक एजेंडे पर बहस के लिए उसे मजबूर करने में नाकाम बना हुआ है। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान विपक्षी नेता हाल के चुनावी नतीजों को लेकर भाजपा को ताना देने और उस पर कटाक्ष करने से आगे नहीं निकल पाए।

महंगाई और बेरोजगारी जैसी मूलभूत समस्याओं पर समाधान की अपनी योजना पेश करने के बजाय विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने शिव के साये में जाने में अपना कल्याण समझा। मगर इससे भाजपा को सारी चर्चा भटकाने का एक और मौका मिल गया है। फिर क्या यह अफसोसनाक नहीं है कि इतनी लंबी बहस में विदेश नीति से संबंधित एक भी प्रश्न नहीं पूछा गया? संभवतः चर्चा के इसी स्तर के कारण चूकी हुई धार के साथ भी नरेंद्र मोदी सत्ता के समीकरण में सबसे आगे बने हुए हैँ।

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