गवाहों, सबूतों पर इतना खतरा क्यों है?
हिंदी फिल्मों में सबसे मुश्किल जो काम दिखाया जाता है वह गवाह का अदालत तक पहुंचना होता है। शायद ही किसी फिल्म में ऐसा हुआ हो कि गवाह समय से और सही सलामत अदालत तक पहुंच पाया हो। गवाह को नायक की मदद के लिए अदालत तक पहुंचना होता है और विलेन उसे अदालत पहुंचने से रोकता है। इस प्रक्रिया में गवाह घायल भी होता है और कई बार तो इतना घायल हो जाता है कि गवाही देकर अदालत में ही दम तोड़ देता है। जब वह अदालत पहुंचने की कोशिश कर रहा होता है तो कई बार भगवान उसकी मदद करते हैं। कई बार विलेन सबूतों को नष्ट कर देता है और गवाहों को गायब करा देता है और तब नायक को कानून अपने हाथ में लेकर न्याय करना पड़ता है।
यह सब फिल्मों की काल्पनिक कहानियों में होता है। लेकिन जब सर्वशक्तिशाली भारत सरकार की सीबीआई और ईडी जैसी एजेंसियां अदालत के सामने खड़े होकर हर आरोपी की जमानत का विरोध करती हैं तो हिंदी फिल्मों का दृश्य सजीव हो जाता है। इन एजेंसियों के वकीलों की दलील सुन कर आपको यकीन हो जाएगा कि फिल्मों के दृश्य काल्पनिक नहीं होते हैं। उनमें बिल्कुल सही दिखाया जाता है। यकीन नहीं हो तो भारत राष्ट्र समिति यानी बीआरएस की नेता के कविता की जमानत याचिका के विरोध में दिए गए सीबीआई और ईडी की दलीलों को उदाहरण के तौर पर देख सकते हैं। सोमवार, एक जुलाई को दिल्ली हाई कोर्ट ने कविता की जमानत याचिका खारिज की थी।
इस याचिका पर सुनवाई के दौरान सीबीआई और ईडी ने इस आधार पर जमानत का विरोध किया कि यह अपराध अंतरराष्ट्रीय स्वभाव का है और आरोपी प्रभावशाली है। ईडी ने कहा, ‘धन शोधन जैसे मामले में जमानत देने के लिए सिर्फ उपस्थित होने और सबूतों से छेड़छाड़ न करने की शर्त रखना काफी नहीं है। आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करके आरोपी मनी ट्रेल को गायब कर सकती हैं। इससे जांच और केस का कोई मतलब नहीं रह जाएगा’। दूसरी एजेंसी सीबीआई ने जमानत का विरोध करते हुए कहा, ‘आरोपी याचिकाकर्ता को जमानत पर रिहा किया जाता है, तो इस बात की संभावना है कि वह जांच को नाकाम कर देंगी’।
सवाल है कि जब आरोपी यानी के कविता गवाहों और सबूतों को प्रभावित कर रही होंगी तब एजेंसियां क्या कर रही होंगी? क्या यह एजेंसियों का अपनी नाकामी खुद स्वीकार करना नहीं है? क्या इससे यह साबित नहीं होता है कि जांच से लेकर गवाहों और सबूतों की रक्षा तक में भारत सरकार की प्रीमियम एजेंसियां नकारा हैं? वे न तो गवाहों की सुरक्षा कर सकती हैं और न सबूतों को बचा सकती हैं! एक सवाल यह भी है कि ज्यादा ताकतवर, सक्षम और सलाहियात वाला कौन है, भारत सरकार की प्रीमियम एजेंसियां या गिरफ्तार किए गए आरोपी? क्या उनके हाथ कानून और एजेंसियों के हाथ से ज्यादा लंबे हैं? इन तमाम सवालों के ऊपर एक सवाल यह है कि एजेंसियों को किसी भी मामले की जांच के लिए कितना समय चाहिए और क्या जितना समय उनको जांच के लिए चाहिए उतने समय तक किसी आरोपी को बिना आरोप तय किए या बिना सुनवाई किए विचाराधीन कैदी के तौर पर जेल में रखा जा सकता है?
दिल्ली की शराब नीति में हुए कथित घोटाले और धन शोधन के जिस मामले का ऊपर जिक्र किया गया है, उसकी जांच दो साल से चल रही है। 17 अगस्त 2022 को सीबीआई ने पहला मुकदमा दर्ज किया और उसके पांच दिन बाद 22 अगस्त को ईडी ने धन शोधन का मुकदमा दर्ज किया। उसके बाद दोनों एजेंसियों की जांच के दो साल होने जा रहे हैं। सोचें, धन शोधन के मामले में किसी का अपराध प्रमाणित हो जाए तो उसे अधिकतम सात साल की सजा होगी। लेकिन देश की दो प्रीमियम एजेंसियों की जांच ही दो साल में पूरी नहीं हुई है और अब भी उसको लगता है कि किसी आरोपी को जमानत मिल गई तो जांच प्रभावित हो जाएगी!
कितनी हैरानी की बात है कि एजेंसी ने दो साल में सारे सबूत अपने नियंत्रण में नहीं ले लिए हैं और गवाहों की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं की है! या कहीं ऐसा तो नहीं है कि एजेंसी के नियंत्रण में आ चुके सबूत भी गायब हो सकते हैं? सोचें, दो साल जांच करने के बाद भी कोई एजेंसी खड़ी होकर कोर्ट में कहती है कि आरोपी को जमानत मिली तो गवाह और सबूत प्रभावित होते हैं तो उनको अपनी नाकामी पर शर्म क्यों नहीं आती है? और क्यों नहीं जज यह सवाल पूछते हैं कि एजेंसियां इतनी कमजोर क्यों हैं कि आरोपी गवाह और सबूत प्रभावित कर देंगे? या दो साल में उसने क्या किया अब भी गवाह और सबूत खतरे में हैं?
सोचें, शराब नीति के मामले में दिल्ली के उप मुख्यमंत्री रहे मनीष सिसोदिया डेढ़ साल से जेल में बंद हैं। उनको भी इस आधार पर जमानत नहीं मिल रही है कि वे प्रभावशाली व्यक्ति हैं और छूटे तो गवाह व सबूतों को प्रभावित कर देंगे। विडम्बना यह है कि जो एजेंसी यह बात कह रही उसी ने यह दावा भी किया है कि उसने शराब नीति में हुए घोटाले को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त सबूत जुटा लिए हैं। आरोपी की गिरफ्तारी को जायज ठहराने के लिए एजेंसियों ने कोर्ट में दावा किया है कि उनके पास अकाट्य सबूत हैं और इसलिए उसने गिरफ्तारी की है।
फिर वही एजेंसी यह बात कैसे कह सकती है कि आरोपी को जमानत मिली तो सबूत प्रभावित होगा? क्या वह सबूतों को सुरक्षित रखने में अक्षम है? सीबीआई ने 26 फरवरी 2023 को सिसोदिया को गिरफ्तार किया था। यानी जांच शुरू होने के छह महीने बाद सारे सबूत जुटाने और दूसरे गिरफ्तार आरोपियों से पूछताछ के बाद कथित पुख्ता सबूतों के आधार पर उनकी गिरफ्तारी हुई थी। फिर भी डेढ़ साल बाद उनको जमानत नहीं मिल रही है कि गवाह और सबूत प्रभावित हो सकते हैं!
तो क्या इस मामले में या किसी भी मामले में आरोपी को तब तक जेल में रखा जाना चाहिए, जब तक देश की सर्वोच्च अदालत से उसके मुकदमे का फैसला नहीं हो जाता है? क्योंकि सर्वोच्च अदालत का फैसला आने के बाद ही तो सबूतों और गवाहों पर से खतरा टलेगा! असल में इससे ज्यादा हास्यास्पद और मूर्खतापूर्ण बात कोई नहीं हो सकती है। दुनिया के किसी भी सभ्य देश में इस तरह की बातें नहीं होती हैं। पुलिस और जांच एजेंसियां सबूतों को सुरक्षित रखती हैं और गवाहों की सुरक्षा के पुख्ता कानून बनाए गए हैं।
तभी गिरफ्तारी के साथ ही आरोपियों को जमानत मिल जाती है। वहां आरोपी के भाग जाने की आशंका तो जताई जाती है लेकिन आरोपी गवाह व सबूतों को प्रभावित करेगा यह दलील नहीं दी जाती है। तभी अदालतें जमानत देने के लिए कोई बड़ी रकम निर्धारित कर देती हैं ताकि आरोपी देश छोड़ कर भाग नहीं सके। भारत में जस्टिस वी कृष्णा अय्यर ने बहुत पहले कहा था कि ‘बेल नॉट जेल’। यह भी कहा जाता है कि ‘बेल इज रूल, जेल इज एक्सेप्शन’। लेकिन भारत में इसका उलटा होता है। यहां जमानत मिलना दुर्लभ अपवाद है और जेल ही रूल है।
पुलिस या एजेंसियां आरोपियों को पकड़ती हैं और अदालतें उनको जेल में ठूंस देती हैं और महीनों, बरसों तक जमानत नहीं देती हैं। तभी देश की जेलें विचाराधीन कैदियों से भरी हैं। इस स्थिति को बदलना होगा। आपराधिक मामलों में जांच की समय सीमा तय करनी होगी और जमानत का स्पष्ट नियम बनाना होगा। यह सुनिश्चित करना होगा कि गवाह और सबूत प्रभावित कर देने जैसी बेवकूफी भरी बातों के आधार पर किसी को जमानत देने से इनकार नहीं किया जाए। चाहे कितना भी गंभीर मामला हो आरोपी को जमानत मिलनी चाहिए।
क्योंकि बिना सुनवाई के उनको जेल में रखना मानवाधिकारों का घनघोर उल्लंघन है। भारत में अभियोजन साबित होने की दर बहुत मामूली है। इसका मतलब है कि अक्सर आरोपी बरी हो जाते हैं। सोचें, कोई विचारधीन कैदी के तौर पर दो साल जेल में रहे और उसके बाद आरोप से बरी हो जाए तो उसके जीवन के दो साल कौन लौटाएगा? कहीं ऐसा तो नहीं है कि एजेंसियों को पता होता है कि अदालत में आरोप साबित नहीं होंगे इसलिए सुनवाई से पहले ही सजा पूरी करा दी जाती है!