आरक्षण की सीमा पर नई बहस
पटना हाई कोर्ट ने बिहार में आरक्षण बढ़ाने के कानून को निरस्त कर दिया है। उच्च अदालत ने फैसले को असंवैधानिक बताते हुए इसे रद्द किया है। उसने अपने फैसले में संविधान के समानता वाले अनुच्छेदों के साथ साथ आरक्षण की अधिकतम 50 फीसदी की सीमा का भी हवाला दिया है। यह सीमा 1992 में इंदिरा साहनी केस में सुप्रीम कोर्ट ने तय की थी। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इसी फैसले में विशेष स्थितियों का भी जिक्र किया था।
उसने कहा था कि विशेष स्थितियों में 50 फीसदी की सीमा को पार किया जा सकता है। विशेष स्थितियों के हवाले ही नरेंद्र मोदी सरकार ने आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों के लिए 10 फीसदी आरक्षण का कानून बनाया है। इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि इससे 50 फीसदी की अधिकतम सीमा का उल्लंघन होता है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाएं खारिज करते हुए ईडब्लुएस के लिए 10 फीसदी आरक्षण को संविधानसम्मत ठहराया।
आरक्षण की अधिकतम सीमा का एक विरोधाभास तमिलनाडु का कानून भी है। तमिलनाडु की तत्कालीन करुणानिधि सरकार ने 1990 में आरक्षण की सीमा बढ़ा कर 69 फीसदी की थी। लेकिन 1992 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद मद्रास हाई कोर्ट ने यह सीमा घटाने का आदेश दिया। उस समय केंद्र में पीवी नरसिंह राव की अल्पमत सरकार थी और तमिलनाडु में जयललिता की पार्टी अन्ना डीएमके सत्ता में आ गई थी। ऐसा माना जाता है कि अपने समर्थन के बदले में जयललिता ने केंद्र की नरसिंह राव सरकार को मजूबर किया कि वह आरक्षण की सीमा बढ़ाने के राज्य सरकार के कानून को संविधान की नौवीं अनुसूची में डाले।
किसी भी कानून को संविधान की नौवीं अनुसूची में डाल देने से वह कानून न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर हो जाता है। अभी नौवीं अनुसूची में कुल 284 कानून हैं। सोचें, इससे बड़ा विरोधाभास क्या हो सकता है कि एक ही कानून अगर संविधान की नौवीं अनुसूची में डाल दिया गया तो वह संविधानसम्मत हो गया और अगर नौवीं अनुसूची में नहीं डाला गया तो संविधान विरूद्ध हो गया! दोनों कानूनों को एक समान प्रक्रिया से पास किया गया है, दोनों का असर एक समान है और दोनों से प्रभावित होने वाले वर्ग भी समान हैं। फिर भी एक संविधान के अनुरूप है और दूसरा संविधान के विरूद्ध है!
सो, इस विरोधाभास पर नए सिरे से और गंभीरता से चर्चा की जरुरत है। इसमें राजनीतिक मजबूरियों या पूर्वाग्रहों के लिए जगह नहीं होनी चाहिए। इसका समाधान यह नहीं हो सकता है कि आज बिहार में सत्तारूढ़ जनता दल यू के 12 सांसदों की केंद्र सरकार को जरुरत है तो बिहार के कानून को नौवीं अनुसूची में डाल दिया जाए और वहां आरक्षण की बढ़ी हुई सीमा लागू हो जाए। ध्यान रहे बिहार की महागठबंधन यानी जनता दल यू और राजद की सरकार ने आरक्षण की सीमा बढ़ाने का फैसला किया था और तभी दोनों पार्टियों ने केंद्र सरकार से कहा था कि इसे नौवीं अनुसूची में डाला जाए।
अब पटना हाई कोर्ट द्वारा इसे निरस्त किए जाने के बाद फिर से मांग हो रही है कि इसे नौवीं अनुसूची में डाला जाए। आरक्षण के कई जानकार और पिछड़ी जातियों के लिए काम करने वाले सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ता मांग कर रहे हैं कि बिहार में जब सभी पार्टियां आरक्षण की सीमा बढ़ाए जाने के पक्ष में हैं तो फिर से बिहार सरकार विधानसभा से इस कानून को पास कराए और उसे केंद्र सरकार नौवीं अनुसूची में डाल दे ताकि इस पर न्यायिक हस्तक्षेप नहीं हो सके।
लेकिन क्या इससे आरक्षण की सीमा का विवाद हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा? ऐसा नहीं है। उलटे इससे नए सामाजिक व राजनीतिक विवाद शुरू हो जाएंगे। ध्यान रहे बिहार से पहले छत्तीसगढ़ की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने आरक्षण की सीमा बढ़ा कर 76 फीसदी करने का कानून बनाया था, जिसे राज्यपाल की मंजूरी नहीं मिली है। बिहार से पहले झारखंड की मौजूदा जेएमएम सरकार ने आरक्षण की सीमा बढ़ा कर 77 फीसदी करने का कानून बनाया था और उस कानून को भी तकनीकी आधार पर राज्यपाल ने रोक दिया। क्या यह संभव है कि एक कानून को तो बिहार में नौवीं अनुसूची के जरिए बचा लिया जाए और उसी तरह के दूसरे राज्य के कानून को रोक दिया जाए? झारखंड मुक्ति मोर्चा के पास सिर्फ तीन सांसद हैं और वह केंद्र सरकार के साथ नहीं है इस आधार पर क्या उसके कानून को रोका जा सकता है? फिर समानता के सिद्धांत और शासन के संघीय ढांचे का क्या होगा?
तभी आरक्षण की सीमा को लेकर दशकों से चल रही बहस को हमेशा के लिए खत्म करने का समय आ गया है। इससे पहले कि आरक्षण का मुद्दा एक बार फिर राजनीतिक और सामाजिक आंदोलन में बदले और इसे लेकर समाज में विद्वेष फैले, इसका समाधान खोजना होगा। एक समाधान संविधान की नौवीं अनुसूची का है। अगर यह सिद्धांत तय हो जाए कि कोई भी राज्य सरकार अगर विधानसभा से पास करा कर आरक्षण बढ़ाने का कानून बनाती है तो उसे नौवीं अनुसूची में डाल दिया जाएगा तो इस विवाद का समाधान हो जाएगा। इससे चुनिंदा पार्टियों के दबाव में फैसला करने यानी पीक एंड चूज की अपनाई जा रही नीति भी समाप्त हो जाएगी। दूसरा तरीका यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने विशेष स्थितियों की जो बात कही है उस पर उच्च अदालतें गंभीरता से ध्यान दें और अगर किसी राज्य के हालात ऐसे हों कि वहां आरक्षण की सीमा बढ़ाना जरूरी लगे तो राज्य सरकार के कानून को लागू करने की इजाजत दें।
जहां तक बिहार की बात है तो पिछड़ी जातियों, अत्यंत पिछड़ी जातियों, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण बढ़ाने की जितनी जरुरत वहां है उतनी शायद किसी और राज्य में नहीं है। इन समूहों के लिए आरक्षण बढ़ाने का फैसला करने से पहले राज्य सरकार ने जाति गणना कराई, जिसमें सामाजिक और आर्थिक स्थिति के आंकड़े इकट्ठा किए गए। इन आंकड़ों से पता चला कि बिहार में लगभग 85 फीसदी आबादी पिछड़ी, अत्यंत पिछड़ी, एससी और एसटी समुदाय की है।
जाति गणना के मुताबिक बिहार में 27 फीसदी पिछड़ी जाति, 36 फीसदी अत्यंत पिछड़ी जाति, करीब 20 फीसदी अनुसूचित जाति और एक फीसदी अनुसूचित जनजाति है। इसी अनुपात में सरकार ने पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण 12 से बढ़ा कर 18 फीसदी, अत्यंत पिछड़ी जातियों के लिए 18 से बढ़ा कर 25 फीसदी, एससी के लिए 16 से बढ़ा कर 20 फीसदी और एसटी के लिए एक से बढ़ा कर दो फीसदी कर दिया। इस तरह इनका आरक्षण 65 फीसदी पहुंच गया। आर्थिक रूप से कमजोर यानी ईडब्लुएस के लिए 10 फीसदी आरक्षण बना रहा। इस तरह बिहार में कुल आरक्षण बढ़ कर 75 फीसदी हो गया।
जाति गणना में इकट्ठा किए गए आर्थिक आंकड़े भी बिहार के विशेष स्थितियों वाला राज्य होने की गवाही देते हैं। बिहार में एक करोड़ परिवार यानी करीब पांच करोड़ आबादी ऐसी है, जिसकी मासिक आमदनी छह हजार रुपए से कम है। इन परिवारों की प्रति व्यक्ति आमदनी 12 सौ रुपए मासिक यानी 40 रुपए रोज से भी कम है। ऐसा नहीं है कि बची हुई करीब दो तिहाई आबादी बहुत समृद्ध है। मध्य वर्ग और शहरी आबादी बहुत कम है। बिहार में सिर्फ 12 फीसदी आबादी शहरों में रहती है, जबकि राष्ट्रीय औसत 35 फीसदी का है। विकास के हर पैमाने पर बिहार देश का सबसे पिछड़ा राज्य है।
प्रति व्यक्ति स्कूल व कॉलेज का औसत, प्रति व्यक्ति डॉक्टर और अस्पताल के बेड का औसत हो या प्रति व्यक्ति आमदनी का औसत हो, सबमें बिहार सबसे पिछड़ा है। एक तिहाई आबादी गरीबी रेखा के नीचे रहती है। बिहार में प्रति व्यक्ति आमदनी सिर्फ आठ सौ डॉलर यानी 25 हजार रुपए सालाना के करीब है। यह प्रति व्यक्ति आमदनी के राष्ट्रीय औसत के 30 फीसदी के बराबर है। ऐसे राज्य में अगर एससी, एसटी, ओबीसी के लिए आरक्षण की सीमा बढ़ाने का फैसला हुआ है तो वह विशेष स्थितियों वाले फैसले के अनुरूप है।
बिहार का मामला राजनीतिक रूप से भाजपा के लिए बहुत उलझा हुआ है। वहां की राजनीति जाति आधारित है और नीतीश कुमार ने इसी मकसद से जाति गणना कराई थी। अब कांग्रेस के राहुल गांधी और दूसरी विपक्षी पार्टियां भी जाति गणना और आरक्षण बढ़ाने की बात कर रहे हैं। अगर भाजपा ने किसी तरह से बढ़े हुए आरक्षण को बचाने का प्रयास नहीं किया तो नीतीश कुमार के एनडीए में बने रहने की संभावना पर सवालिया निशान लग जाएगा। वे फिर से राजद के साथ जाने की सोच सकते हैं, जिससे बिहार में भाजपा की उम्मीदों को बड़ा झटका लग सकता है। तभी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और कानूनी सभी पहलुओं से आरक्षण की सीमा की बहस को तार्किक परिणति तक पहुंचाना जरूरी दिख रहा है।