मतदाता क्यों मुंह मोड़ रहे हैं?
इस साल लोकसभा चुनाव की घोषणा से पहले किसी ने उम्मीद नहीं की होगी कि मतदान के दौरान ऐसी उदासीनता और मतदाताओं की बेरूखी देखने को मिलेगी। ऐसा लग रहा था कि विपक्षी पार्टियों ने एकजुट होकर गठबंधन बनाया है और भाजपा के साथ आमने सामने की लड़ाई बनाई है तो लोगों में जोश और उत्साह देखने को मिलेगा। भाजपा विरोधी जिस 60 फीसदी वोट की बात अक्सर होती है उसके उत्साह के साथ वोट डालने की उम्मीद की जा रही थी। दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रिकॉर्ड बनाने के लिए चुनाव लड़ रहे हैं और उन्होंने फरवरी में ही चार सौ पार सीट का नारा दिया तो उनके समर्थकों के भी खुल कर मैदान में उतरने और उनकी जीत सुनिश्चित करने के लिए मतदान करने की उम्मीद की जा रही थी। लेकिन छह चरण के चुनाव के बाद मतदान के आंकड़े दूसरी कहानी बयां कर रहे हैं।
अभी तक कुल 487 लोकसभा सीटों पर चुनाव संपन्न हुआ है। इनमें 14 सीटों असम की और जम्मू कश्मीर की पांच सीटें निकाल दी जाएं, जहां पिछले चुनाव के बाद परिसीमन हुआ है तो संख्या 468 की बनती है। इसमें भी एक सूरत की सीट पर निर्विरोध चुनाव हुआ। सो, 467 सीटों के आंकड़ों पर विचार करने पर पता चलता है कि इन सीटों पर पिछली बार के मुकाबले डेढ़ फीसदी कम मतदान हुआ है। पिछली बार यानी 2019 में इन सीटों पर 67.18 फीसदी वोटिंग हुई थी, जबकि इस बार छह चरण के बाद इन सीटों पर 65.63 फीसदी मतदान हुआ है। आंकड़ों की बारीकी में जाएं तो तीन सौ सीटें ऐसी हैं, जहां मतदान प्रतिशत में कमी आई है। कहीं कहीं कमी बहुत मामूली है तो कहीं बहुत ज्यादा है। जैसे नगालैंड की एकमात्र सीट पर 24 फीसदी की कमी आई है। संख्या के लिहाज से देखें तो दो लाख 41 हजार वोट कम पड़े हैं। उत्तर प्रदेश की मथुरा और मध्य प्रदेश की सीधी व खजुराहो सीट पर भी एक लाख से ज्यादा वोट कम पड़े हैं। इन सीटों पर मतदान में 10 फीसदी से ज्यादा की गिरावट आई है।
मतदान प्रतिशत में गिरावट के बावजूद ज्यादातर सीटों पर पिछली बार से ज्यादा वोट पड़े हैं क्योंकि मतदाताओं की संख्या बढ़ी है। 2019 में 91 करोड़ मतदाता थे, जो 2024 में बढ़ कर 96 करोड़ से ज्यादा हो गए हैं। इसलिए मतदान प्रतिशत में कमी के बावजूद पिछली बार से ज्यादा वोट पड़े हैं। परंतु हैरानी की बात यह है कि करीब 125 सीटें ऐसी हैं, जहां मतदान प्रतिशत में तो कमी आई ही है साथ ही संख्या के लिहाज से भी गिरावट आई है। इन सीटों पर पिछली बार के मुकाबले सिर्फ प्रतिशत में नहीं, बल्कि संख्या में भी कम वोट पड़े हैं। यह बड़ी चिंता की बात है।
देश में सिर्फ दो ही राज्य हैं तेलंगाना और कर्नाटक, जहां मतदान प्रतिशत में पिछली बार के मुकाबले बढ़ोतरी हुई है। तेलंगाना में करीब तीन फीसदी और कर्नाटक में करीब दो फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। ध्यान देने की बात यह है कि पिछले चार चुनावों में पहली बार मतदान प्रतिशत में कमी आई है। परिसीमन के बाद हुए पहले चुनाव यानी 2009 में भी मतदान प्रतिशत में बहुत मामूली ही सही लेकिन बढ़ोतरी हुई थी। 2014 में तो छह फीसदी का बड़ा इजाफा हुआ था और 2019 में भी एक भी फीसदी से कुछ ज्यादा बढ़ोतरी हुई थी। लेकिन 2024 में मतदान प्रतिशत में गिरावट आई है। आखिरी बार 2004 के चुनाव में मतदान प्रतिशत गिरा था और तब अटल बिहारी वाजपेयी ने सत्ता गंवा दी थी।
कम मतदान को लेकर किसी नतीजे तक नहीं पहुंचे तब भी यह बड़ा सवाल है कि आखिर मतदाताओं ने क्यों मुंह फेर लिया है? क्या राजनीति और चुनाव की प्रक्रिया से उनका मोहभंग हुआ है या यथास्थिति रहने की आश्वस्ति इतनी प्रबल हो गई कि लोगों ने वोट डालने की जरुरत नहीं समझी? ध्यान रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के गृह राज्य गुजरात में 4.4 फीसदी की गिरावट आई है। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को मिली भारी भरकम जीत और कांग्रेस के सफाए से ऐसा लग रहा है कि लोगों के मन में यह धारणा बैठी की भाजपा जीत ही रही है तो मतदान करने क्या जाना है? ऐसी ही आश्वस्ति का भाव केरल में भी दिखा, जहां मतदान में साढ़े छह फीसदी की गिरावट आई। वहां विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के दो अहम घटक दल कांग्रेस और सीपीएम का मोर्चा आमने सामने का चुनाव लड़ रहा है। भाजपा अभी बड़ी ताकत के तौर पर नहीं उभरी है। इसलिए संभव है कि मतदाताओं के एक बड़े समूह ने कांग्रेस और लेफ्ट मोर्चे में से किसी एक को चुनने की बजाय घर बैठे रहना ज्यादा बेहतर समझा हो।
गुजरात और केरल के उदाहरण से यह अंदाजा लगता है कि जहां मतदान से बहुत कुछ बदलने की संभावना नहीं दिखी वहां लोग उदासीन हुए और कम मतदान किया। इसी तरह तेलंगाना और कर्नाटक में जहां मतदान से कुछ बदलने की उम्मीद दिखी वहां मतदान प्रतिशत बढ़ा। सो, इसका यह भी मतलब है कि अगर आगे आने वाले चुनावों में दो पार्टियों या दो गठबंधनों के बीच बड़ी और अच्छी लड़ाई यानी कड़ा मुकाबला नहीं दिखता है तो मतदाताओं की उदासीनता देखने को मिलेगी। वैसे भी पारंपरिक राजनीतिक सिद्धांत के हिसाब से यह माना जाता है कि मतदाता जोश तभी दिखाएंगे, जब या तो नेता बड़ा हो या लड़ाई तगड़ी हो।
इसके अलावा कुछ और कारण भी हैं, जिनकी वजह से मतदाताओं में जोश नहीं दिखा। पहला कारण तो चुनाव के असली मुद्दों का नदारद होना है। आम मतदाता के जीवन से जुड़े मुद्दों पर इस बार चुनाव नहीं हो रहा है। महंगाई, बेरोजगारी, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मुद्दे चुनाव में नहीं हैं। चुनाव कुछ काल्पनिक खतरे दिखा कर लड़ा जा रहा है। एक कारण भीषण गर्मी का भी है। चुनाव आयोग ने ऐसा शिड्यूल बनाया कि पूरा चुनाव बैशाख और जेठ की चिलचिलाती धूप में संपन्न हुआ है। एक अन्य कारण चुनाव का लंबा शिड्यूल भी है। चुनाव आयोग ने इस बार करीब तीन महीने का कार्यक्रम बनाया। इससे भी चुनाव का माहौल नहीं बना।
सोचें, बिहार में सिर्फ 40 सीटें हैं लेकिन चार सीटों पर 19 अप्रैल को मतदान हुआ और आठ सीटों पर एक महीना 12 दिन के बाद एक जून को मतदान होगा। इस तरह के शिड्यूल की वजह से कहीं भी चुनाव का माहौल नहीं बना। कम मतदान का एक कारण घरेलू प्रवासन भी है। भारत दुनिया में सबसे ज्यादा घरेलू प्रवासन वाला देश है। बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओड़िशा, राजस्थान, उत्तराखंड जैसे कई राज्यों से पूरे देश में कामकाज के सिलसिले में लोगों का आना जाना हुआ है। मजदूरी और कामकाज के सिलसिले में एक राज्य से दूसरे राज्य में गए प्रवासियों का बड़ा तबका संभव है कि भीषण गर्मी की वजह से मतदान के लिए अपने गृह राज्य नहीं लौट पाया हो। बहरहाल, कारण जो भी हो लेकिन भारत जैसे राजनीति को पसंद करने वाले देश में मतदान कम होना चिंता की बात है।