सीटों की संख्या का मनोवैज्ञानिक दांव

लोकसभा चुनाव 2024 की एक खास बात यह है कि इस बार लोग यह नहीं पूछ रहे हैं कि नरेंद्र मोदी की सरकार को बहुमत मिलेगा या नहीं है। आमतौर पर चुनाव में बहुमत के जादुई आंकड़े की चर्चा होती है, जो लोकसभा के हिसाब से 272 है। लेकिन इस बार हर व्यक्ति एक दूसरे से पूछ रहा है कि क्या भाजपा को 370 और एनडीए को चार सौ सीटें आ जाएंगी? यह एक एक्सट्रीम है, जिसका प्रचार भाजपा के नेता कर रहे हैं तो इसके बरक्स दूसरा एक्स्ट्रीम यह है कि भाजपा को 140 सीट मिलेगी।

समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने ‘अबकी बार चार सौ पार’ के मुकाबले नारा दिया कि ‘अबकी बार चार सौ हार’। यानी भाजपा 543 में से चार सौ सीट हार रही है और उसे 140 सीट मिलेगी। जो विपक्षी नेता अपनी बात को थोड़ा तार्किक बना कर पेश करना चाहते हैं, जैसे तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी तो वे कह रहे हैं कि भाजपा को 220 से 240 सीटें मिलेंगी। सो, चार सौ बनाम 140 के दो एक्सट्रीम के बीच एक आंकड़ा ढाई सौ के आसपास का भी है, जिसका दावा कई लोग कर रहे हैं।

सबसे दिलचस्प बात यह है कि भाजपा के जो नेता जीत के भरोसे में हैं और जिनको लग रहा है कि नरेंद्र मोदी का जादू चल रहा है वे भी नहीं चाह रहे हैं कि भाजपा तीन सौ सीट से ऊपर पहुंचे। दूसरी ओर विपक्ष के प्रति सहानुभूति रखने वाले विशेषज्ञ और सोशल मीडिया इंफ्लूएंसर, जो मान रहे हैं कि मोदी का हारना मुश्किल है वे भी चाहते हैं कि चाहे एक सीट कम हो लेकिन बहुमत के जादुई आंकड़े से पीछे रह जाए भाजपा।

यह बहुत रोचक मामला है, जिसका विस्तार से अध्ययन किया जाना चाहिए कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि 10 साल में ही देश का एक बड़ा तबका पूर्ण बहुमत वाली सरकार से उब गया या परेशान हो गया। पहली नजर में ऐसा लग रहा है कि यह पूर्ण बहुमत से ज्यादा संपूर्ण नियंत्रण वाली बहुमत की सरकार के प्रति उब और कुछ हद तक चिंता है, जिसकी वजह से लोग चाहते हैं कि भाजपा को पूर्ण बहुमत न मिले। उनको लग रहा है कि अगर सरकार को पूर्ण बहुमत नहीं मिला तो वह ज्यादा समावेशी बनेगी और ज्यादा जवाबदेही के साथ काम करेगी। मनमाने फैसले रूकेंगे और केंद्रीय एजेंसियों की बेलगाम कार्रवाई पर भी रोक लगेगी।

ऐसी सदिच्छा रखने वाले लोग भी बहुत हैं, जो मान रहे हैं कि अगर भाजपा बहुमत से पीछे रह गई और उसे ढाई सौ या 260 के करीब सीटें आती हैं तो भाजपा के अंदर भी नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व पर सवाल उठेगा और भाजपा की सहयोगी पार्टियां भी तेवर दिखाएंगी। वे नेतृत्व बदलने की मांग भी कर सकती हैं। इस नंबर गेम में एक थीसिस यह भी है कि अगर भाजपा की सीटें कम होती हैं तो उसका सबसे बड़ा लाभार्थी कांग्रेस पार्टी होगी।

अगर किसी तरह से भाजपा की 50 सीट कम हो जाए तो उसमें 60 से 70 फीसदी सीटें कांग्रेस के खाते में जाएंगी। यानी उसकी 30 से 35 सीटें बढ़ सकती हैं। अगर कांग्रेस 80 सीट से ऊपर पहुंचे तो इसका भी एक बड़ा मैसेज देश की कारोबारी जमात के साथ साथ नौकरशाही और मीडिया को जाएगा। यह माना जाएगा कि कांग्रेस वापसी के रास्ते पर है। इसलिए उसके प्रति पूरी तरह से अनदेखी का भाव बदलेगा। उसे और उसके नेताओं को गंभीरता से लिया जाने लगेगा और आगे होने वाले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को धारणा बदलने का लाभ मिलेगा।

बहरहाल, हम संख्या के मनोवैज्ञानिक खेल की बात कर रहे थे। असल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस साल बजट सत्र के दौरान पहली बार चार सौ पार का नारा दिया था। उन्होंने पहले कहा कि उनकी सरकार ने जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 समाप्त किया है तो देश के लोग उनको 370 सीट का टीका यानी शगुन तो दे ही देंगे। इसके बाद उन्होंने कहा कि एनडीए अबकी बार चार सौ पार करेगा। यह विपक्ष के ऊपर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने का दांव था, जो काफी हद तक कारगर हुआ।

इससे देश भर में यह धारणा बनी कि लगातार 10 साल सरकार चलाने के बाद भी प्रधानमंत्री इतने भरोसे में हैं कि उनकी पार्टी पहले से ज्यादा सीट जीतेगी। प्रधानमंत्री ने जब चार सौ सीट जीतने का दावा किया था उससे थोड़े दिन पहले ही उनकी पार्टी राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ तीनों राज्यों में जीती थी। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में तो किसी को अंदाजा नहीं था कि भाजपा जीत पाएगी। लेकिन वह न सिर्फ जीती, बल्कि बहुत बड़ी जीत हासिल की। दिसंबर में आए इस नतीजे के बाद जनवरी में प्रधानमंत्री ने 22 तारीख को अयोध्या में राममंदिर का उद्घाटन किया। इसलिए जब फरवरी में उन्होंने चार सौ सीट का दावा किया तो उस समय की स्थितियों में इस दावे में दम दिखाई देने लगा।

तभी मानसिक रूप से समूचा विपक्ष दबाव में आया और विपक्ष के प्रति सहानुभूति रखने वाले तमाम बौद्धिकों को भी लगा कि अब भाजपा को हराना मुश्किल है। इसी सोच में पहली बार यह धारणा बनी कि अगर हरा कर सत्ता से बाहर नहीं कर सकते हैं तो कम के कम सीटें कम करके सरकार की मनमानी पर अंकुश तो लगा सकते हैं। तभी भाजपा की सीटें कम होने का नैरेटिव बना। यह कहा जाने लगा कि भाजपा जीत जाएगी लेकिन बहुमत नहीं हासिल कर पाएगी। हालांकि यह तब की बात है, जब चुनाव की घोषणा नहीं हुई थी और विपक्षी पार्टियों का गठबंधन भी तय नहीं हुआ था। उसी समय भाजपा ने एक मनोवैज्ञानिक बढ़त बनाई। उसने देश के मतदाताओं के एक बड़े समूह को यकीन दिला दिया कि एकमात्र विकल्प नरेंद्र मोदी और भाजपा ही है।

हालांकि मार्च के बाद इस स्थिति में बदलाव आया। विपक्ष का गठबंधन बनने और चार सौ से ज्यादा सीटों पर भाजपा से आमने सामने की लड़ाई बनाने के बाद विपक्ष का आत्मविश्वास लौटा। भाजपा के चार सौ पार के नारे से उसके अपने काडर में जो शिथिलता आई या आश्वस्ति का भाव आया उससे भी विपक्षी गठबंधन को कुछ फायदा हुआ। भाजपा ने चार सौ पार के भरोसे में कहीं तमाम पुराने सांसदों को रिपीट कर दिया तो कहीं मनमाने तरीके से टिकट काट दी।

दूसरी पार्टियों से आए एक सौ से ज्यादा नेताओं को टिकट दे दी। इससे स्थानीय कार्यकर्ताओं में नाराजगी बढ़ी। एक तरफ मतदाता उदासीन हुआ, उसमें थकान दिखी तो दूसरी ओर पार्टी कार्यकर्ताओं में नाराजगी और निराशा दिखी। चुनाव के बीच विपक्ष यह नैरेटिव बनाने में कामयाब रहा कि भाजपा को चार सौ सीट इसलिए चाहिए ताकि वह संविधान बदल सके और आरक्षण खत्म कर सके। तभी दूसरे चरण के मतदान के बाद भाजपा ने भी संविधान का राग छेड़ा और कहा कि कांग्रेस आ गई तो वह एससी, एसटी और ओबीसी का आरक्षण छीन कर मुसलमानों को दे देगी। इससे ऐसा लगा कि चार सौ पार के नारे से भाजपा ने जो मनोवैज्ञानिक बढ़त बनाई थी वह संविधान समाप्त करने की चर्चा से कमजोर पड़ी।

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