दलबदल के लिए दोषी कौन
राज्यसभा चुनाव में हुई क्रॉस वोटिंग के बाद इस बात पर बहस छिड़ी है कि दलबदल के लिए असली दोषी कौन है? भाजपा के नेता और उनके समर्थक कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राजद आदि पर ही ठीकरा फोड़ रहे हैं और कह रहे हैं कि जो पार्टी अपने विधायकों को नहीं संभाल पाई वह भाजपा से क्या लड़ेगी?
हिमाचल प्रदेश में मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू का मजाक बनाया जा रहा है कि मुख्यमंत्री रहते उनको पता ही नहीं चला कि उनके विधायक साथ छोड़ कर जा रहे हैं। दूसरी ओर भाजपा विरोधी पार्टियों के नेता और सोशल मीडिया का उनका इकोसिस्टम भाजपा को दोषी बता रहा है। उनका कहना है कि भाजपा ने अपनी ताकत का इस्तेमाल करके ‘डाका डाला’ है तो इसमें कांग्रेस या सुक्खू या अखिलेश यादव की क्या गलती है?
इस बहस में एक दिलचस्प बात यह है कि जो लोग दलबदल के लिए भाजपा की खूब आलोचना कर रहे हैं वे ही लोग कर्नाटक के उप मुख्यमंत्री डीके शिवकुमार की तारीफ कर रहे हैं कि उन्होंने अपने विधायकों को एकजुट रखा और भाजपा के एक विधायक से क्रॉस वोटिंग करा दी साथ ही एक दूसरे विधायक को गैरहाजिर करा दिया।
बहरहाल, दोनों तरफ से दिए जा रहे तर्कों में मेरिट है और इसलिए बहस चल रही है। वैसे भी देश की राजनीति और साथ साथ समाज जिस तरह से वैचारिक आधार पर विभाजित हुआ है उसमें यह हैरानी वाली बात नहीं है। विभाजन ऐसा हो गया है कि एक पक्ष केंद्र सरकार और भाजपा की हर बात और हर कदम को सही ठहराता है तो दूसरा पक्ष विपक्ष की हर बात का समर्थन करता है। इसके बीच में या आसपास देखने की जरुरत ही नहीं समझी जाती है।
हकीकत यह है कि इन दोनों तर्कों के बीच एक बड़ा क्षेत्र ऐसा है, जिसे समझने की जरुरत है। एक पक्ष यह मानता है कि ‘मोहब्बत और जंग में सब जायज है’ की तर्ज पर भाजपा ने ताकत का इस्तेमाल करके दूसरी पार्टी के विधायकों को तोड़ लिया तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है तो दूसरा पक्ष यह है कि भाजपा ने डाका डाला और लोकतंत्र की हत्या की है। लेकिन इन दोनों के बीच वे लोग भी तो हैं, जो पाला बदलते हैं।
उनके बारे में कोई बात नहीं कर रहा है। वो कैसे लोग हैं, जिन्होंने किसी लालच में या दबाव में पाला बदला? यह सवाल तो उठता ही है कि अगर भाजपा किसी को अपनी ओर मिलाना चाहती है तो क्या वह जबरदस्ती कर रही है या मिलने वाले की भी मर्जी हो रही है? यह भी सवाल है कि अगर कोई विधायक या सांसद किसी पार्टी को छोड़ कर जाने का मन बना ले और पार्टी के नेता या मुख्यमंत्री को इसकी जानकारी भी हो जाए तो वह किस तरह से उसे रोक सकता है? जाने वाले को कौन रोक सकता है!
असल में राजनीति के व्यक्ति केंद्रित होते जाने और सत्ता को अंतिम लक्ष्य या साध्य मानने की सोच ने भारतीय राजनीति को बहुत ज्यादा दूषित कर दिया है। हां, यह जरूर कह सकते हैं कि इसका प्रदूषण बढ़ाने में या इसे मौजूदा शक्ल देने में भाजपा ने बड़ी भूमिका निभाई है। उसने लालच के साथ साथ भय का एक भी तत्व इसमें जोड़ दिया है। हालांकि ऐसा नहीं है कि पहले दलबदल नहीं होते थे या पहले राज्यसभा के चुनावों में विधायक क्रॉस वोटिंग नहीं करते थे। आजादी के बाद हर समय ऐसा होता रहा है। लेकिन लंबे समय तक दलबदल वैचारिक आधार पर होता था। दलगत आधार पर भी दलबदल हुए लेकिन उसमें भी कहीं न कहीं विचारधारा का हाथ रहा।
एक ही विचारधारा की कई पार्टियां थीं, जिसके नेता इधर से उधर आते जाते थे। लेकिन अब दलबदल विशुद्ध रूप से निजी स्वार्थ से संचालित हो रहा है। अब विचारधारा का कोई मतलब नहीं है। कह सकते हैं कि पहले विचारधारा की गोंद नेताओं को बांधे रहती थी, लेकिन अब सत्ता एकमात्र गोंद है, जिससे नेता बंधे हुए हैं। इसलिए सिर्फ भाजपा को दोष देने से काम नहीं चलेगा। भाजपा खरीदार की तरह मंडी में बैठी है और नेता बिकने के लिए आ रहे हैं। सोचें, देश में पशुओं का मेला लगता है, जिसमें पशुओं के मालिक उन्हें बेचने के लिए ले जाते हैं लेकिन इंसान तो खुद ही जा रहे हैं बिकने के लिए!
गुजरात में नाराण भाई राठवा अपने बेटे संग्राम राठवा के साथ कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में चले गए। सोचें, जब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी तब उनको रेल मंत्री बनाया गया था। बाद में कांग्रेस ने उनको राज्यसभा में भेजा। उनका राज्यसभा का कार्यकाल तीन अप्रैल 2024 को समाप्त हो रहा है। उससे एक महीना तीन दिन पहले उनको लगा कि अब कांग्रेस राज्यसभा या कुछ और पद देने की स्थिति में नहीं है तो उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और भाजपा में चले गए। इसका कांग्रेस नेतृत्व की कमजोरी से कोई लेना-देना नहीं है और न इसके लिए भाजपा की आलोचना करने की जरुरत है। यह विशुद्ध रूप से उस व्यक्ति के निजी स्वार्थ का मामला है।
इसी तरह हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस ने वीरभद्र सिंह को छह बार मुख्यमंत्री बनाया। जब राज्य में कांग्रेस की सरकार नहीं होती थी तो उनको केंद्र में मंत्री बनाया जाता था। अब भी उनकी पत्नी प्रतिभा सिंह प्रदेश कांग्रेस की अध्यक्ष हैं और बेटे विक्रमादित्य सिंह राज्य सरकार में मंत्री हैं। लेकिन वे आज अगर कांग्रेस को नुकसान पहुंचा रहे हैं तो उसमें कांग्रेस या सुखविंदर सिंह सुक्खू की कमी नहीं है। जब नेता अपना दीन ईमान छोड़ दे और सत्ता या धन के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाए तो फिर उसमें कोई भी पार्टी क्या कर सकती है?
राजनीति में नैतिक मूल्यों के निरंतर ह्रास को समझने की जरुरत है। यह भी समझने की जरुरत है कि अगर राजनीति समाज का आईना है तो समाज की क्या स्थिति हो गई है? इसको ठीक किए बगैर यह उम्मीद नहीं की जा सकती है कि राजनीति स्वच्छ हो जाएगी। इसमें एक पहलू दलबदल कानून और उसके अमल का भी है। जिस तरह से कानूनी मामलों में कहा जाता है कि न्याय प्रक्रिया ऐसी है कि अपराधियों को सजा नहीं होती है और उनका हौसला बढ़ जाता है। उसी तरह दलबदल के मामले में भी है। दलबदल करने वाले विधायकों या सांसदों पर महीनों, बरसों तक कोई कार्रवाई नहीं होती है। स्पीकर मामले को लटका कर रखते हैं और सदस्यों का कार्यकाल खत्म हो जाता है।
झारखंड में बाबूलाल मरांडी, प्रदीप यादव और बंधु तिर्की का मामला चार साल से लंबित है। बंधु तिर्की काफी पहले विधायक से हट भी गए और उनकी जगह उनकी बेटी विधायक बन गई। लेकिन स्पीकर का फैसला नहीं आया। महाराष्ट्र में भी सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद स्पीकर का फैसला आया।
सोचें, ऐसे में कोई विधायक या सांसद दलबदल करने से घबराएगा? राजनीति में नैतिक मूल्यों की बहाली तो होते होते होगी लेकिन उससे पहले यह कानून बनना चाहिए कि अगर किसी पार्टी का विधायक या सांसद इस्तीफा देता है तो वह अनिवार्य रुप से विधानसभा या लोकसभा से इस्तीफा देगा और उसके फिर से चुनाव लड़ने पर एक निश्चित समय तक रोक रहेगी। इस तरह का कोई प्रभावी उपाय करना होगा।