गठबंधन बिखरने का जिम्मेदार कौन?
भाजपा की तरह तो नहीं लेकिन उससे मिलती जुलती एक साइबर आर्मी कांग्रेस के पास भी है। कांग्रेस के पास भी एक इकोसिस्टम है, जिसमें पारंपरिक रूप से भाजपा और संघ विरोधी लोगों की बड़ी संख्या है। ये सब लोग हर स्थिति में उसी तरह से कांग्रेस के बचाव या समर्थन में उतरते हैं, जैसे भाजपा के इकोसिस्टम के लोग भाजपा का समर्थन और बचाव करते रहते हैं। इन दोनों पार्टियों के मुकाबले अन्य पार्टियों के पास ऐसी कोई साइबर आर्मी या इकोसिस्टम नहीं है। आम आदमी पार्टी को एक अपवाद मान सकते हैं। तभी जब विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ में बिखराव शुरू हुआ तो केंद्रीय पार्टी कांग्रेस की भूमिका पर सवाल उठाने की बजाय सबने नीतीश कुमार और ममता बनर्जी को निशाना बनाना शुरू किया। कहीं कहीं आम आदमी पार्टी भी निशाने पर आई तो कहीं कम्युनिस्ट पार्टियों पर हमला हुआ। लेकिन सवाल है कि क्या विपक्षी गठबंधन नहीं बना या बनने से पहले ही बिखरता दिख रहा है तो उसके लिए प्रादेशिक पार्टियों के नेता ही जिम्मेदार हैं या कांग्रेस की भी कोई जिम्मेदारी बनती है?
बड़ा सवाल यह है कि गठबंधन की केंद्रीय पार्टी के तौर पर क्या कांग्रेस को पहल अपने हाथ में नहीं रखनी चाहिए थी? उसने क्यों गठबंधन की जिम्मेदारी आउटसोर्स की थी? पहले शरद पवार गठबंधन बनाने की कोशिश करते रहे। फिर ममता बनर्जी और के चंद्रशेखर राव ने इसका प्रयास किया। अरविंद केजरीवाल ने भी एक समय इसकी कोशिश की और अंत में नीतीश कुमार ने सफल प्रयास किया। नीतीश पिछले साल अप्रैल में इस सिलसिले में पहली बार मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी से मिले थे। तब तक खबर थी कि राहुल के मन में नीतीश को लेकर नाराजगी है क्योंकि 2015 में गठबंधन के साथ लड़ने के बाद वे राजद और कांग्रेस को छोड़ कर भाजपा में चले गए थे। अब भी यह कहा जा रहा है कि कांग्रेस को नीतीश पर पहले से भरोसा नहीं था। खड़गे ने तो यहां तक कि उनको पहले ही पता चल गया था कि नीतीश गठबंधन छोड़ेंगे। अब सवाल है कि जब पहले ही पता चल गया था या भरोसा नहीं था तो उनको साथ बैठा कर बात करने का क्या मतलब था?
नीतीश कुमार जब गठबंधन का प्रस्ताव लेकर दिल्ली पहुंचे थे और खड़गे व राहुल से मिले थे तब दोनों ने उनके प्रयास का समर्थन किया था। कांग्रेस ने न सिर्फ उनके प्रयास का समर्थन किया, बल्कि उनके तय किए गए राजनीतिक एजेंडे को अपनाया था। जाति गणना और आरक्षण की सीमा बढ़ाना नीतीश कुमार का आइडिया था, जिस पर राहुल गांधी कर्नाटक का विधानसभा चुनाव लड़े। उन्होंने नीतीश के एजेंडे को आगे बढ़ाते हुए प्रेस कांफ्रेंस में पूछना शुरू किया कि इसमें कितने ओबीसी हैं या यह बताना शुरू किया कि देश के 90 सचिवों में सिर्फ तीन सचिव ओबीसी हैं या यह नारा दिया कि ‘जितनी आबादी उतना हक’। सोचें, जब नीतीश पर भरोसा नहीं था तब तो उनको गठबंधन बनाने की जिम्मेदारी दी गई, उनके राजनीतिक एजेंडे को चुनावी मुद्दा बनाया गया और उनकी पहल पर पटना में पहली बैठक हुई। इसका मतलब है कि भरोसा नहीं होने वाली बात बाद में जोड़ी गई है।
बड़ी और गठबंधन की केंद्रीय पार्टी होने के नाते यह कांग्रेस की जिम्मेदारी बनती थी कि वह सभी पार्टियों को वैचारिक और राजनीतिक रूप से बांध कर रखे। इसके लिए जरूरी था कि पहली या दूसरी बैठक में ही संगठन का ढांचा बनता, संयोजक व अध्यक्ष नियुक्त किए जाते, न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय होता और सबसे जरूरी सीटों का बंटवारा होता। ध्यान रहे नीतीश कुमार और ममता बनर्जी दोनों ने एक सितंबर को मुंबई में हुई बैठक में सीट बंटवारे पर जोर दिया था और 31 अक्टूबर तक की अघोषित समयसीमा भी तय की गई थी। नीतीश ने बैठक में कहा था कि गठबंधन में सबसे पेचीदा मामला सीट बंटवारे का है इसलिए पहले उसे निपटाया जाए। लेकिन कांग्रेस ने इस पर चुप्पी साध ली। कांग्रेस की रणनीति यह थी कि साल के अंत में होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव तक इसे टाला जाए क्योंकि उसमें कांग्रेस को अच्छा प्रदर्शन करने की उम्मीद थी। अगर वह तीन राज्यों में सरकार बना लेती तो मोलभाव की क्षमता बढ़ जाती। तब वह ज्यादा मजबूती से सीटों के लिए मोलभाव करती। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। कांग्रेस सिर्फ एक राज्य में जीत पाई।
जब विधानसभा चुनाव के नतीजे आने लगे तब कांग्रेस के हाथ पैर फूले और सारे नतीजे आने से पहले ही कांग्रेस ने विपक्षी पार्टियों को बैठक का न्योता भेजना शुरू कर दिया, जिसे सबने ठुकरा दिया। जाहिर है सबने कांग्रेस की होशियारी भांप ली थी। इसलिए बाद में बैठक के लिए 19 दिसंबर की तारीख तय हुई। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। ममता बनर्जी ने अकेले लड़ने का मन बना लिया था तो नीतीश कुमार ने गठबंधन बदलने का फैसला कर लिया था। यह सबको पता है कि ज्यादातर प्रादेशिक पार्टियों के नेता इस उम्मीद में गठबंधन से जुड़े थे कि सब मिल कर लड़ेंगे तो भाजपा की सीटें कम कर देंगे और तब इधर या उधर के गठबंधन में बड़ी भूमिका मिल सकता है। त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में सर्वोच्च पद मिलने की भी उम्मीद कई नेता लगाए हुए थे। लेकिन हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में भाजपा की जीत और कांग्रेस की हार ने उनका मनोबल तोड़ दिया। पहले गठबंधन फाइनल करने और सीट बंटवारे में हुई देरी से निराशा था और ऊपर से दिसंबर के पहले हफ्ते में आए चुनाव नतीजे ने नेताओं को और निराश किया। भाजपा को टक्कर देने की उम्मीद टूटी तो सब अपने अपने रास्ते तलाशने लगे।
इसलिए किसी एक नेता या एक पार्टी को जिम्मेदार ठहरा कर उसके ऊपर ठीकरा फोड़ने से किसी को कुछ हासिल नहीं होने वाला है। यह सही है कि नीतीश कुमार का विपक्षी गठबंधन छोड़ कर भाजपा में जाना एक बड़ा झटका है। लेकिन कांग्रेस की भूमिका पर भी चर्चा होनी चाहिए, जिसने पहले दिन से गठबंधन को खुले दिल से नहीं अपनाया था। लेफ्ट पार्टियों की भी भूमिका की समीक्षा होनी चाहिए, जिनको भाजपा को हराने के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता व समर्पण सबसे चाहिए लेकिन अपने असर वाले राज्य में किसी से समझौता मंजूर नहीं है और न किसी खास नेता के प्रति अपनी निजी खुन्नस छोड़नी है। ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल ने गठबंधन के अंदर रह कर जैसी राजनीति की उस पर भी बात होनी चाहिए। ममता ने बैठक में अचानक खड़गे का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए क्यों सुझाया और क्यों केजरीवाल ने उसका समर्थन किया, इसकी व्याख्या होगी तब पता चलेगा कि कैसे गठबंधन के अंदर गठबंधन कैसे काम कर रहा था, जिसने एकजुट होकर भाजपा से लड़ने की संभावनाओं को कमजोर किया। सपा के साथ तो कांग्रेस ने कुछ मसला निपटाया है लेकिन शिव सेना के उद्धव ठाकरे गुट का मामला अब भी उलझा है। सो, ऐसा लग रहा है कि भानुपति का कुनबा जोड़ने की कोशिश हुई थी, जिसमें वक्ती तौर पर कामयाबी मिली थी लेकिन वह कामयाबी टिकाऊ साबित नहीं हुई। एकाध नई पार्टियों को छोड़ दें तो कुल मिला कर कांग्रेस के पास वहीं पुरानी यूपीए वाली पार्टियां बची हैं, जिनके साथ मिल कर उसे चुनाव लड़ना होगा।