कांग्रेस बैठाती है मैनेजरों को सिर पर!
उत्तर भारत में क्यों कांग्रेस डूबी-
किंवदंती की तरह दिल्ली के राजनीतिक जानकारों में चर्चा रही है कि 2014 में लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी चुनाव जीत गए तो उनके सलाहकार मैनेजर प्रशांत किशोर ने अपना भविष्य जानने के लिए अमित शाह से बात की। उन्होंने उनसे पूछा– मई के बाद क्या होगा? इस पर अमित शाह का टका सा जवाब था- जून होगा! यह बात भाजपा की ओर से प्रचारित हुई होगी। पर इससे जाहिर हुआ कि चुनाव में सर्वेक्षण करने वाले, चुनाव प्रबंधन का काम करने वाले, नारे गढ़ने और आकर्षक पोस्टर-बैनर-हार्डिंग बनवाने वाले या जनता के दिमाग में क्लिक होने वाले आइडिया देने वाले मैनेजरों और उनकी कंपनियों की राजनीतिक व्यवस्था में क्या जगह है। उन्हें किस हैसियत में रखा जाना चाहिए। निश्चित ही प्रशांत किशोर चुनाव प्रबंधन विधा में भारत के न्यूमेरो उनो हैं। गुरू हैं। लेकिन मोदी-शाह और भाजपा के सेटअप में, उसकी राजनीतिक व्यवस्था में चुनाव का काम खत्म होने के बाद प्रशांत किशोर को दूध में मक्खी की तरह बाहर फेंकने की वास्तविकता बहुत कुछ बताती है। भाजपा ने प्रशांत किशोर को न सिर पर बैठाया और न उनको हटाने के बाद मोदी-शाह का चुनावों में जीतना घटा।
इसके उलट कांग्रेस प्रशांत किशोर की लीक पर बने चुनावी मैनेजरों को ठेके देती है, उन्हें सिर पर बैठाती है और उन पर निर्भर हो कर एक के बाद एक चुनाव हार रही है। हाल में प्रशांत किशोर के सहयोगी रहे सुनील कनुगोलू ने कर्नाटक में कांग्रेस के लिए चुनाव प्रबंधन किया। और कर्नाटक में पार्टी जीती तो सुनील कनुगोलू न केवल कर्नाटक के मुख्यमंत्री के सलाहकार हो गए है, बल्कि वे कैबिनेट मंत्री का दर्जा ले कर कांग्रेस मुख्यालय में भी सुपर बॉस जैसी हैसियत में हैं। वे कर्नाटक में मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री से नीचे किसी से बात नहीं करते हैं। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में उन्होंने मध्य प्रदेश और तेलंगाना में कांग्रेस के लिए सर्वेक्षण और चुनाव प्रबंधन का काम किया। मध्य प्रदेश में उन्होंने संभावित उम्मीदवारों की जीत-हार के बारे में आकलन किया। उनकी रिपोर्ट से कमलनाथ-दिग्विजय सिंह अपनी तैयारियों, अपनी उम्मीदवार सूची को लेकर भ्रमित हुए। कमलनाथ जब सर्वे करने वाली अपनी टीमों की फीडबैक पर अड़े तो कलह हुई। तभी नैरेटिव बना कि कमलनाथ अहंकारी हैं और वे किसी की नहीं सुन रहे। दिग्विजय सिंह भी उनके आगे लाचार हैं।
जाहिर है मध्य प्रदेश में एक तरफ कमलनाथ ने सर्वे करने और चुनाव प्रबंधन करने वाली एजेंसियों को सिर पर बैठा रखा था तो दूसरी ओर कांग्रेस आलाकमान ने कमलनाथ के सिर पर सुनील कनुगोलू को बैठाना चाहा। कमलनाथ अहंकार से भरे हुए तो चुनाव मैनेजर भी अहंकार में।
ऐसा ही राजस्थान में था। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने दशकों के अपने चुनावी अनुभवों, राजनीतिक विवेक को ताक में रख कर एक ऐसे मैनेजर से चुनाव प्रबंधन कराया, जिसको लेकर एआईसीसी, राहुल गांधी, सुनील कनुगोलू सब पहले से बिदके हुए थे। मगर गहलोत ने अपने पीए शशिकांत और एआईसीसी में पवन खेडा, प्रभारी सुखजिंदर रंधावा आदि की लॉबिंग से नरेश अरोड़ा की डिजाइन बॉक्स्ड को अपनी राजनीति सुपुर्द की। जबरदस्ती प्रदेश कांग्रेस कमेटी से उसका चुनाव ठेका करवाया। गहलोत के लिए काम शुरू करने से पहले अरोड़ा को लेकर हवा बनाई गई कि वहीं कर्नाटक में कांग्रेस की जीत का सूत्रधार हैं। एक तरफ कर्नाटक की जीत का श्रेय सुनील कनुगोलू ले रहे थे तो दूसरी ओर गहलोत के कान में नरेश अरोड़ा की महानता का बखान। ताकि उनका भाव बड़ा बने। मुख्यधारा के मीडिया में खबरें छपने लगीं कि राजस्थान के जादूगर अशोक गहलोत नहीं, बल्कि नरेश अरोड़ा हैं और वे राजस्थान का रिवाज बदलेंगे! ‘इंडियन एक्सप्रेस’ जैसे अखबारों ने भी विज्ञापन के बदले नरेश अरोड़ा पर खबरें छापीं कि वे मास्टर रणनीतिज्ञ हैं और उनसे कांग्रेस का माहौल बदला है। सोचें, भाजपा के लिए सर्वे और प्रबंधन का काम करने वाली आधा दर्जन एजेंसियों में से किसी को लेकर क्या यह लिखा या कहा जा सकता है कि जादूगर नरेंद्र मोदी, अमित शाह नहीं, बल्कि सर्वे करने वाली एजेंसी का मालिक है? क्या प्रशांत किशोर से लेकर कनुगोलू, नरेश अरोड़ा जैसे किसी भी मैनेजर की यह औकात, यह हिम्मत हो सकती है जो कहे कि उनके कारण मोदी, शाह या भाजपा जीतती है?
बहरहाल, चुनाव से ठीक पहले राजस्थान में पार्टी लाचार व ठप्प अवस्था में रही। नरेश अरोड़ा और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा के बीच झगड़ा होने की चर्चा थी। राजधानी में हल्ला रहा कि डोटासरा, रंधावा के आगे नरेश अरोड़ा ने राहुल गांधी को लेकर बहुत अंटशंट कहा, जिससे डोटासरा भड़के। वे नाराज हो कर घर बैठ गए। गहलोत उन्हें मनाने उनके घर गए। घबराहट में गहलोत ने राहुल गांधी से सलाह मांगी। पर उन्होंने न राय दी और न हस्तक्षेप किया। सुनील कनुगोलू ने भी गहलोत के प्रस्ताव पर इनकार किया। नतीजतन एआईसीसी, प्रदेश कांग्रेस दोनों का मानों विधानसभा चुनाव से लेना-देना ही नहीं। सब कुछ नरेश अरोड़ा की डिजाइन बॉक्स्ड से हुआ। खुद मुख्यमंत्री गहलोत मानों अपने पीए शशिकांत और चुनावी ठेकेदार नरेश अरोड़ा की कठपुतली! जो वे कहें उसी अनुसार चलते हुए। इतना ही नहीं नरेश अरोड़ा ने सार्वजनिक तौर पर अपनी धमक बतलाते हुए सोशल मीडिया में लिखा कि डोटासरा के साथ बैठक की बातें काल्पनिक हैं। उन्होंने लिखा- मेरे मन में उनके और राहुल गांधी के प्रति अत्यंत सम्मान है। चुनाव से पहले कांग्रेस के अभियान को विफल करने की कोशिश करने वाले सफल नहीं होंगे। राजस्थान में कांग्रेस की जीत होगी। इस विवाद के बाद खबर आई कि डिजाइन बॉक्स्ड के एक कर्मचारी ने 20 लाख रुपए में कांग्रेस का सर्वे भाजपा को बेच दिया। हालांकि बाद में अरोड़ा की कंपनी ने खबर छापने वाले अखबार को एक सौ करोड़ रुपए का कानूनी नोटिस भेजा।
क्या ऐसा कुछ भी मोदी-शाह के केंद्रीय या भाजपा के प्रादेशिक संगठनों में संभव है? भाजपा के लिए कोई आधा दर्जन एजेंसियां चुपचाप काम करती हैं। एसोसिएशन ऑफ बिलियन माइंड्स के अलावा एक्सिस माई इंडिया के भी भाजपा के लिए काम करने की खबर है। खुद भाजपा की इन हाउस एजेंसियां हैं, जो हर चुनाव क्षेत्र के सर्वे करती हैं, अलग अलग क्षेत्रों की समस्याएं बूझती है, फिर उन्हें पार्टी और संभावित उम्मीदवारों को बताती हैं। लेकन भाजपा के लिए सर्वे करने वाली एजेंसियों के मालिकों के बारे में यह कभी सुनने को नहीं मिला कि भाजपा की जीत में असली जादूगर चुनाव प्रबंधन करने वाली अमुक एजेंसी का मालिक है।
दूसरी तरफ कांग्रेस इक्का-दुक्का चुनाव जीतती है तो उसका श्रेय नेताओं की बजाए एजेंसियों को दिया जाने लगता है। सबको पता है कि कर्नाटक में कांग्रेस को सिद्धरमैया और डीके शिवकुमार और सियासी माहौल के कारण जीत मिली लेकिन कांग्रेस के ही नेताओं ने अपने निजी स्वार्थ और उन दोनों दिग्गज नेताओं का योगदान कमतर दिखाने के लिए सुनील कनुगोलू और नरेश अरोड़ा को जीत का श्रेय दिया। उसके बाद इन दोनों ने नेताओं के भी महागुरू होने के अंदाज में अपना धंधा बढ़ाते हुए दूसरे चुनावी राज्यों का प्रबंधन लिया। और नतीजा सामने है!
जाहिर है कई कई दशक के राजनीतिक अनुभव लिए कांग्रेस नेता अपनी राजनीतिक समझदारी और जमीनी पकड़ दोनों खो बैठे हैं। वे मीडिया और सोशल मीडिया में बनाए जाने वाले नैरेटिव से बिना सोचे-समझे प्रभावित हो जाते हैं। कांग्रेस के तमाम नेता इस गलतफहमी में जीते हैं कि प्रशांत किशोर ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बना दिया या अमुक अमुक राज्य में उसने मुख्यमंत्री बना दिया तो वे या उनकी कंपनी से निकले मैनेजर कांग्रेस को भी सत्ता में ला देंगे। तभी कांग्रेस एक समय प्रशांत किशोर को सब कुछ (पूरा संगठन) सौंपने का फैसला लेने की कगार पर थी। कांग्रेस को उनकी विशेषज्ञता का इस्तेमाल नहीं करना था, बल्कि उन्हें पूरी पार्टी सौंप देनी थी!
और हालिया चुनाव में भी कांग्रेस के नेताओं ने पांच राज्यों के चुनाव इस भावना में बहते हुए लड़े कि सुनील कनुगोलू ने कर्नाटक की सत्ता दिलाई है तो मध्य प्रदेश और तेलंगाना में भी वे जीता देंगे या डिजाइन बॉक्स्ड ने कर्नाटक में काम किया है, पंजाब, हिमाचल की सीटों या असम चुनाव में काम किया या भारत जोड़ो यात्रा की मार्केटिंग की है तो राजस्थान में अशोक गहलोत से ज्यादा जादूगरी नरेश अरोड़ा कर दिखाएंगे! इस मोटी सोच में कांग्रेस ने सिल्वर पुश और निक्सन एडवर्टाइजिंग के साथ साथ नरेश अरोड़ा की डिजाइन बॉक्स्ड को ठेके दिए।
संदेह नहीं है आधुनिक तकनीक और सोशल मीडिया के समय में चुनावी मैनेजरों की जरूरत है लेकिन कांग्रेस और भाजपा का यह फर्क है कि भाजपा इनका इस्तेमाल करती है जबकि कांग्रेस, एआईसीसी उनको अपने सर पर बैठा कर उनकी मनमानी बनवाती है। कांग्रेस के पास इन एजेंसियों की फीडबैक को वेरीफाई करने का कोई सामानांतर सिस्टम नहीं है, इसलिए वे जो भी रिपोर्ट देते हैं उसे आंख मूंद कर स्वीकार कर लिया जाता है। ये मैनेजर पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को जनता, समर्थकों और यहां तक कि जिला, प्रदेश के नेताओं से पूरी तरह काट देते हैं। इसका खामियाजा कांग्रेस को 2014 के बाद से लगभग हर चुनाव में भुगतना पड़ा है।
कांग्रेस सिर्फ सर्वे करने वाली एजेंसियों और चुनाव प्रबंधन की कंपनियों को ही सिर पर नहीं बैठाती है, बल्कि एक खास समुदाय के लोगों के समर्थन से लाखों व्यूज बटोरने वाले यूट्यूबर्स, भाजपा के अंध विरोध में पगलाए सोशल मीडिया के कुछ इन्फ्लूएन्सर्स, दाढ़ी बढ़ा कर बौद्धिक बने कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं, वामपंथी पार्टियों के हाशिए में जाने से लगभग पूरी तरह से बेरोजगार हुए बैठे साम्यवादी विचारकों और मुख्यधारा की मीडिया से अलग हुए कुछ पत्रकारों को भी सर पर बैठाती है। ये सब लोग हर चुनाव से पहले माहौल बनाते हैं कि इस बार तो भाजपा हार ही रही है और ये कांग्रेस में सिर तक गैस भर देते है कि अब कांग्रेस और राहुल गांधी ही देश का नैरेटिव सेट कर रहे हैं, भारत का राजनीतिक परिदृश्य बदल रहा है और समय आ गया है कांग्रेस का। हैरानी की बात यह कि जमीनी संपर्क और समझ गंवा चुके कांग्रेस के नेता दूसरों की भरी गैस से अपना गुब्बारा फुला कर हवा में उड़ने लगते हैं। कांग्रेस में गैस भरने वाले इन यूट्यूबर्स, इन्फ्लूएन्सर्स, सामाजिक कार्यकर्ताओं, बौद्धिकों आदि पर कल चर्चा करेंगे।