राजस्थान चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बनाम वसुंधरा राजे फैक्टर
जयपुर। राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना समेत 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव का परिणाम 3 दिसंबर को आना वाला है । वहीं सभी राज्यों की सियासत में सस्पेंस बना हुआ। है। सबके अपने-अपने दावे हैं। अगर राजस्थान की बात करें तो भाजपा यह परसेप्शन बनाने में कामयाब रही है कि वह सत्ता में लौट रही है। इसके पीछे आधार पिछली बार यानि 2018 की तुलना में ज्यादा मतदान होना है। पिछले ट्रेंड बताते हैं कि अधिक मतदान अब तक सत्ताधारी दल के खिलाफ जाता रहा है। भाजपाइयों का यह भी कहना है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की गारंटियों पर राष्ट्रवाद और हिंदुत्व भारी रहा है। जिन लोगों ने भाजपा का ही चश्मा पहना हुआ है, वे 120 सीट से ज्यादा भाजपा के पक्ष में मानकर चल रहे हैं। लेकिन, राजनीतिक गलियारों में सबसे बड़ा सवाल यही है कि इस चुनाव में वसुंधराराजे फैक्टर रहा या नहीं रहा। क्या केवल मोदी फैक्टर ही रहा है।
दूसरा पहलू यह है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा ने इस परसेप्शन को यह कहकर तोड़ने की कोशिश की है कि लोगों ने कांग्रेस की गारंटियों पर भरोसा किया है। अधिक मतदान की वजह यह है कि अनुसूचित जाति, जनजाति, मुस्लिम औऱ पिछड़े वर्ग के मतदाताओं ने जमकर वोट डाले है। यही कांग्रेस का वोट बैंक है, क्योंकि सरकारी योजनाओं के लाभार्थियों का बहुत बड़ा हिस्सा इन्हीं वर्गों में से आता है। ओल्ड पेंशन स्कीम को लेकर कर्मचारियों ने भी जमकर कांग्रेस का साथ दिया है। उनका यह भी दावा है कि इस चुनाव में कांग्रेस का अंडर कंरट रहा है। इसलिए कांग्रेस पुनः सत्ता में वापसी कर रही है। खैर, मतदाता ने इस बार अपने मन की बात नेताओं और विश्लेषकों को नहीं बल्कि ईवीएम को ही बताई है। ईवीएम का पिटारा 3 दिसंबर को ही खुलेगा।
क्या बागियों के हाथ में होगी सत्ता की चाबी?
ऐसा माना जा रहा है कि इस बार भी सत्ता की चाबी बागियों यानि निर्दलीयों के हाथ में ही रहेगी। भाजपा ने लंबे समय बाद मुख्यमंत्री का चेहरा दिए बिना चुनाव लड़ा है। वह भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की गारंटी और कमल निशान के चेहरे पर। अब सवाल यह है कि क्या इस चुनाव में वसुंधराराजे फैक्टर रहा है। अधिकांश लोगों का जवाब है कि नहीं। क्योंकि वसुंधराराजे ने चुनिंदा यानि अपने लोगों की सीटों पर ही प्रचार किया। अधिकांश समय उनकी भाजपा मुख्यालय से भी दूरी बनी रही। आखिर मुख्यमंत्री कौन बनेगा? इसके बारे में भाजपा के सबसे बड़े नेता का मन या किस पर उनका सर्वाधिक ध्यान होगा, यह जानना न केवल मुश्किल है बल्कि चौकानें वाला नाम भी हो सकता है। संभवतः इसीलिए मुख्यमंत्री के चेहरे माने जा रहे राजेंद्र राठौड़, सतीश पूनिया, राज्यवर्धन सिंह राठौड़, दीया कुमारी, बाबा बालक नाथ समेत तमाम चेहरे अपने निर्वाचन क्षेत्र से बाहर नहीं निकल पाए। क्योंकि उन्हें अपना चुनाव जीतना मुश्किल हो रहा था। ऐसे में केंद्रीय नेतृत्व के ना चाहते हुए भी वसुंधराराजे ने राजस्थान की सियासत में अपना दमदार किरदार साबित किया है। ऐसा माना जा रहा है कि दोनों ही दलों में बागियों की संख्या काफी अधिक है और इस बार भी सत्ता की चाबी बागियों के हाथ में ही रहेगी।
राजस्थान में वसुंधरा राजे का कद बढ़ेगा या घटेगा?
एक सवाल यह भी इस बार के विधानसभा चुनाव में वसुंधराराजे का कद बढेगा या घटेगा। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि वसुंधराराजे के नेतृत्व में अब तक राजस्थान में 4 विधानसभा चुनाव लड़े जा चुके हैं। वर्ष 2003 के चुनाव में वे 120 सीटें लेकर आईं। लेकिन, 2008 के चुनाव में हारकर भी वे 78 सीटें लेकर आई थीं। इसके बाद वे फिर 2013 के चुनाव में 163 सीटें लेकर लौटी थीं। जबकि वर्ष 2018 के चुनाव में भी उन्होंने 73 सीटें हासिल की थीं। ऐसे में अगर इस बार मोदी के नेतृत्व में पार्टी 100 सीटें भी नहीं ला पाती है तो इससे वसुंधराराजे का कद बढ़ेगा। क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस स्तर पर आकर राजस्थान का चुनाव लड़ा है, उससे भाजपा की 150 से ज्यादा सीटें आनी चाहिए।
भाजपा के मुद्दे बनाम कांग्रेस की गारंटियांः
आम जन के बीच पिछले एक सप्ताह से यह भी सवाल पूछा जा रहा है कि चुनाव में राष्ट्रवाद, हिंदुत्व, भ्रष्टाचार, पेपरलीक, महिलाओं पर अत्याचार जैसे मुद्दे प्रभावी रहे हैं या कांग्रेस की ओल्ड पेंशन स्कीम, चिरंजीवी स्वास्थ्य बीमा योजना, ईस्टर्न राजस्थान कैनाल प्रोजेक्ट (ईआरसीपी), 2 रुपए किलो गोबर की खरीद, सरकारी कॉलेजों में एडमिशन पर मुफ्त लैपटॉप जैसी योजनाएं प्रभावी रहीं। मुझे लगता है कि भाजपा के मुद्दों पर कांग्रेस की गारंटियां ज्यादा प्रभावी रही हैं। क्योंकि अगर व्यक्ति की मनःस्थिति यानि मनोविज्ञान के दृष्टिकोण से देखें तो व्यक्तिगत लाभ हमेशा सबसे पहले रहता है। मुद्दे और मूल्य बाद में आते हैं। संभवतः यही वजह है कि पिछले चुनाव में ईआरसीपी को राष्ट्रीय प्रोजेक्ट बनाने की घोषणा करने वाले नरेंद्र मोदी ने इस बार इस मुद्दे पर बात ही नहीं की। वहीं महिला मतदाताओं को लुभाने के लिए उज्जवला योजना का सिलेंडर 450 रुपए में देने की घोषणा करनी पड़ी। बल्कि पेट्रोल-डीजल की कीमतों पर भी आना पड़ा। जहां तक बात भ्रष्टाचार की है तो मुझे नहीं लगता कि आम आदमी पर इसका बहुत बड़ा असर पड़ता है। बल्कि इस बात से असर पड़ता है कि सरकार बनने के बाद उसे क्या मिलेगा। इस कड़ी में मुफ्त मोबाइल, स्वास्थ्य बीमा योजना, गोबर खरीद जैसी योजनाएं उसे सीधा लाभ पहुंचाने वाली हैं।