चुनावी राजनीति में सामाजिक और धार्मिक वेश में दखल…
देश के चुनावों में राजनीतिक दलों की भागीदारी तो जनप्रतिनिधित्व कानून 1950 के तहत विधिमन्य है, परंतु देश के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में 1952 से ही एक तथाकथित सामाजिक संगठन की दखलंदाज़ी रही है। जी हाँं राजनीतिक पार्टी जनसंघ का जन्म, नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के यहां हुआ था। जो अपने आपको सामाजिक संगठन कहता है परंतु जनसंघ के जनता दल में विलय हो जाने के बाद फिर मुंबई में भारतीय जनता पार्टी के रूप में उदय हुआ। लेकिन संघ उसी पुराने तेवर और रंग ढंग में बना रहा। कहने को सामाजिक संगठन है। न इस संगठन का पंजीयन है और न ही इनके आय – व्यय की जांच का सार्वजनिकरण होता है। कम से कम मुझे नहीं पता अगर होता है तो कोई बताए। बात हो रही थी कि रूप कहीं और का तथा काम कैसी और के!
जी हाँं संघ के स्वयंसेवक (जैसा कि वे खुद को संबोधित करते हैं) तो बीजेपी के कार्यालय और कार्यकर्मों में भाग लेते हंै परंतु इस बार एक और जमात बीजेपी के चुनावी कार्यक्रम में जुड़ गया है। जी हाँ, व ऐन भगवाधारियों की टोली। राम मंदिर निर्माण तक तो संत और साधु कहे जाने वाले भगवाधारी महामान्यवरों का चुनाव में दखल नहीं होता था परंतु इस बार शायद नरेंद्र मोदी जी की चुनावों में स्थिति कमजोर देख कर साधु सन्यासी अब खुल्लम खुल्ला सामने आ गए है !
जनप्रतिनिधित्व कानून के अनुसार कोई भी उम्मीदवार या पार्टी धरम का किसी भी प्रकार से प्रयोग नहीं कर सकती ऐसा पाये जाने पर उनका चुनाव अवैध हो जाएगा ! परंतु सत्ताधारी दल के इन समर्थकों ने अपनी अपनी वर्दी में रहते हुए नरेंद्र मोदी जी के समर्थन में काँग्रेस को अधर्मी और बेईमान के प्रवचन देने शुरू कर दिये हैं। चित्रकूट पीठ के जगत गुरु राम भद्रराचार्य जो कि प्रज्ञा चक्षु है ने काँग्रेस को चुनाव में हारने और और अपने स्वघोषित मित्र नरेंद्र मोदी को जीताने की अपील की है।
किसी भगवाधारी द्वारा भगवत कथा में प्रवचन के दौरान राजनीतिक प्रचार का यह तरीका कुछ नया है। सिवनी में उन्होंने बीजेपी उम्मीदवार मुनमुन रॉय को (जो कथा के आयोजनकर्ता थे और उनके शिष्य भी है) जिताने की अपील जनता से सार्वजनिक रूप से की थी। इतना ही नहीं – उन्होंने अपने यजमान को मंत्री बनवाने का वादा भी जन समूह से किया! उन्होंने अपने प्रवचन में कहा कि आगामी चुनाव (विधानसभा और लोकसभा) के अधर्मी और धर्म के बीच है। काँग्रेस अधर्मी है यह फतवा उन्होंने सिवनी और छिंदवाड़ा में भी अपने प्रवचन में दिया ! इतना ही नहीं टीवी की चर्चा (5 एडिटर और जगतगुरु) में भी उन्होंने जिस प्रकार अपने चेले बागेस्वर महराज के तथाकथित चमत्कारों (आगन्तुकों का नाम और काम बताने की क्रिया) के बारे में पूछे जाने पर बोले में चमत्कारंो को नहीं मानता, पर वह शिष्य है वह जाने, जब संपादकों ने उनकी हरकतों को आपतिजनक बताया तब दंडिधारी सन्यासी बोले अरे बच्चा है। उन्होंने टीवी के माइक पर कहा कि 2024 में नरेंद्र मोदी ही आएंगे। यह कहे जाने पर कि आप समदर्शी नहीं है ? तो उन्होंने कहा कि मित्र और शिष्य से प्रेम करना उचित है !
अब स्वघोषित सन्यासी को आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा सन्यासी के लिए नियत नियमों का उल्ल्ङ्घन ही है! खासकर तब जबकि मध्यप्रदेश सरकार ओंकारेश्वर में उनकी 108 फीट ऊंची मूर्ति का अनावरण हुआ हो ! आदिगुरु के नियमों के अनुसार:
1. सन्यासी स्व श्राद्ध करने के पश्चात परिवार और समाज से दूर हो जाता है।
2. त्रिदण्ड धारण करने के पश्चात वह मोह मत्सर को त्याग दे। इसी हेतु उसे शुभ और अशुभ सूतक में जाना वर्जित है।
3. सन्यासी का कोई मित्र या शत्रु नहीं होता, वह सभी को समदर्शी द्र्श्ट से देखता है।
अब आदिगुरु की मूर्ति के अनावरण के अवसर पर उसी क्षेत्र में उनकी आज्ञा की अवज्ञा हो यह तो सर्वथा अनुचित ही नहीं गर्हित भी है। 5 समपादकों से चर्चा के समय संविधान और इंडिया गठबंधन के बारे में उनका विरोध यह साबित करता है कि वे सर्व धर्म समभाव या धरम निरपेक्षता में विश्वास कम ही है। उनका कहना था कि लव जिहाद को रोकना होगा, उन्होने श्रद्धा हत्या कांड की तुलना मणिपुर में कुकी समुदाय (ईसाई) की महिलाओं के साथ हुए बर्बर व्यवहार से तुलना किया ! एक अपराध की तुलना धार्मिक नर संहार से कहां तक उचित है।
अगर सन्यासियों को चुनाव प्रचार की मंजूरी दी गयी तब शेष धर्मो के भी धर्म गुरु भी अपनी पसंद के धर्म अथवा जाति के उम्मीदवारों के पक्ष में प्रचार करेंगे। तब चुनावों की शुचिता खत्म हो जाएगी। वैसे ही मतदान के पूर्व चुनाव प्रचार बंद हो जाने के बाद भी कीर्तन और कथाओं के जरिये लोग और पार्टीयां अपने-अपने उम्मीदवार के लिए प्रचार करते रहते हैं। अब अगर केचुआ या केंद्रीय चुनाव आयोग इस नवीन परिस्थिति में क्या करेगा ? लेकिन इस बार तो चुनाव आयोग की हैसियत भी कानूनी रूप से कम कर दी जाएगी। तथा सत्तारूढ़ दल तो येन केन प्रकारेण चुनाव में जितना चाहता है उसके नेताओं के लिए तो नियम की ऐसी की तैसी ! अब अगर इन्हें रोका नहीं गया तब चुनाव के दौरान हिंसा को रोका नहीं जा सकता वही हो सकता है जैसा मणिपुर में हो रहा है। तब चुनावों से जो हिंसा निकलेगी वह मणिपुर से ज्यादा भयंकर हो सकती है। क्यूंकि सुरक्षा बलों में भी यह जातीय भावना फैलेगी। राम भद्राचार्य जी ने देश को राम मय और रामचरितमानस को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित कराने की बात की है वे भूल जाते है कि आज जिस रूप में सनातन धर्म का स्वरूप है वह आदिगुरु के प्रयासों का ही फल है। यद्यपि वे स्वयं शैव थे परंतु उन्होंने 84 स्तुतियां लिखी है, जिसमें उन्होंने तात्कालीन सभी देवी देवताओं और अवतारों के गुण गए हैं।
फिर किस तर्क से जगतगुरु सिर्फ सनातन को राम तक सीमित रख सकते हंै! वैष्णव संप्रदाय में जिसमें राम भक्तो को रखा जाता है, उसमें भी कृष्ण भक्त हैं हनुमान भक्त हैं। कृष्ण और राम के उपासकों में अंतर है। इसके अलावा शैव है जो भारत में वैदिक धर्म मानने वालों में उनकी संख्या सर्वाधिक है। रामचरित मानस में शैव और राम भक्तों को नजदीक लाने के लिए ही शिव की पूजा की गयी थी। परंतु उनकी आराधना वैष्णवों से अलग है। फिर सबसे बड़ा संप्रदाय है शक्ति उपासकों का बंगाल और उत्तर पूर्व में इनकी बहुतायत है। इसके उपासक बलि चढ़ाते हंै और मदिरा भी, इसलिए उस महाप्रसाद को वे स्वीकार करते हैं। वैष्णव इसे अधर्म बताते हैं। जैन धरम वाले भी शाक्त संप्रदाय को नीची नज़र से देखते हैं। वैसे आदिगुरु ने सभी सम्प्रदायों में समन्वय किया है। मीरा बाई का उदाहरण है वे कृष्ण भक्त थी परंतु उनकी ससुराल राजस्थान में थी जहां शास्त राणा जी थे। इसी उपासना के तरीके के अंतर ने उन्हे ससुराल छोड़ने पर मजबूर किया। परंतु किस्से कहानियों के अनुसार अकबर की महारानी जोधाबाई अपने कृष्ण को विधर्मी के घर भी झूला झुलाती थी।