महिला आरक्षण और पार्टियों की हिप्पोक्रेसी
यह लाख टके का सवाल है कि क्या लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं को कभी सचमुच आरक्षण मिल पाएगा? आबादी के अनुपात में आधी न सही लेकिन एक-तिहाई सीटें भी उनके लिए आरक्षित हो पाएंगी? पहली बार 1989 में तब के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने स्थानीय निकाय में महिलाओं को आरक्षण देने का बिल पेश किया था, जो राज्यसभा में सात वोट से गिर गया था। बाद में पीवी नरसिंह राव की सरकार ने यह बिल पास कराया। उसके बाद कई राज्यों में स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए आरक्षण लागू हुआ। बिहार में तो नीतीश कुमार की सरकार ने 50 फीसदी आरक्षण लागू किया हुआ है। स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था का लाभ यह हुआ कि पूरे देश के अलग अलग निकायों में करीब 15 लाख महिलाएं जन प्रतिनिधि के तौर पर अपनी भूमिका निभा रही हैं। उस एक कानून ने महिला सशक्तिकरण की दिशा में कितना काम किया, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता है।
इसके बावजूद क्या कारण है कि लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण का कानून नहीं बन पा रहा है? इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि जो कानून निर्माता स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान करते हैं वे खुद अपने कुर्सी के त्याग का साहस नहीं दिखा पाते हैं। उनको पता है कि स्थानीय निकाय में आरक्षण देने से बिना कुछ गंवाए महिला हितैषी बना जा सकता है लेकिन अगर लोकसभा और विधानसभाओं में आरक्षण दिया तो अपनी कुर्सी भी गंवानी पड़ सकती है। आज भले जितनी बातें हो रही हों लेकिन ज्यादातर पुरुष सांसद इस पक्ष में नहीं रहते हैं कि महिलाओं को लोकसभा और विधानसभाओं में आरक्षण दिया जाए। यह हकीकत है, जिसे वे वैचारिक जामा पहनाते हैं। एससी, एसटी और ओबीसी आरक्षण की बात करते हैं और उस आधार पर महिला आरक्षण का विरोध करते हैं।
अन्यथा कोई कारण नहीं था कि नौ मार्च 2010 को राज्यसभा से पास होने के बाद महिला आरक्षण का बिल लोकसभा से पास नहीं होता। आज कांग्रेस पार्टी इस बात का श्रेय ले रही है कि उसने महिला आरक्षण की शुरुआत की थी और मौजूदा सरकार की ओर से पेश किया गया बिल उसका बिल है। लेकिन कांग्रेस से कोई यह सवाल नहीं पूछ रहा है कि जब उसने मार्च 2010 में राज्यसभा से बिल पास करा लिया तो लोकसभा में उसे क्यों नहीं पेश किया और क्यों नहीं पास कराया? क्या इससे कांग्रेस की मंशा पर संदेह नहीं पैदा होता है? उससे पहले महिला आरक्षण बिल तीन बार पेश हुआ और तीनों बार लोकसभा में पेश हुआ। लेकिन मनमोहन सिंह की सरकार ने राज्यसभा का रास्ता चुना और राज्यसभा से पास करा कर उसे लोकसभा भेज दिया गया, लेकिन वहां पेश नहीं किया गया।
उस समय लोकसभा में कांग्रेस के 206 सांसद थे और भाजपा के 116 यानी सिर्फ इन दो पार्टियों को मिला कर 322 सांसद थे। बिल पास कराने के लिए दो-तिहाई वोट यानी 362 वोट की जरूरत थी, जो आसानी से मिल जाता। जदयू के 20, कम्युनिस्ट पार्टियों के 20, बीजू जनता दल के 14, तृणमूल कांग्रेस के 19 और डीएमके के 18 सांसद थे, जो इस बिल का समर्थन करते। लेकिन कांग्रेस ने यह बिल पेश नहीं किया। उसके नेताओं ने कहा कि अगर बिल पेश होता तो राजद और समाजवादी पार्टी सरकार से समर्थन वापस ले लेते। हकीकत यह है कि इन दोनों पार्टियों के उस समय सिर्फ 28 सांसद थे और सरकार इनके भरोसे नहीं चल रही थी। सोचें, जुलाई 2008 में मनमोहन सिंह ने अमेरिका के साथ परमाणु संधि करने के लिए 60 सीटों वाली कम्युनिस्ट पार्टियों की परवाह नहीं की। तब कांग्रेस के अपने सिर्फ 145 सांसद थे। लेकिन जब उनके 206 सांसद हो गए तो उन्होंने 28 सांसदों वाली दो पार्टियों की वजह से महिला आरक्षण बिल पेश नहीं किया! क्या यह तर्क किसी के गले उतरेगा? जाहिर है कांग्रेस के पुरुष सांसदों के दबाव में बिल ठंडे बस्ते में डाला गया और आज पार्टी इसका श्रेय लेने को बेचैन है।
भाजपा की मौजूदा सरकार भी उसी रास्ते पर चल रही है, जो रास्ता 2010 में कांग्रेस ने चुना था। फर्क इतना है कि नरेंद्र मोदी की सरकार बिल पास करा कर उसको ठंडे बस्ते में डालेगी। अगर सरकार की मंशा साफ होती तो वह नया बिल लाने की बजाय मार्च 2010 में राज्यसभा में पास किए गए बिल को पुनर्जीवित करती। उसे बारी बारी से दोनों सदनों में पास करा कर लागू कर देती। अगर सरकार उस बिल को पास कराती तो उसे दो महीने बाद पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में भी लागू किया जा सकता था। उसमें जनगणना या परिसीमन की कोई शर्त नहीं थी। दोनों सदनों से पास होने और राष्ट्रपति के दस्तखत के साथ ही वह कानून अमल में आ जाता। लेकिन उसकी बजाय इस सरकार ने महिला आरक्षण को जनगणना और परिसीमन के साथ जोड़ दिया, जिसका मतलब है कि पास होने के बाद भी इस पर अगले कई बरसों तक अमल नहीं हो पाएगा। अगर परिसीमन के बाद इसे लागू किया गया तो यह 2029 के लोकसभा चुनाव में लागू हो पाएगा और तब तक कितनी चीजें बदल जाएंगी यह कोई नहीं कह सकता है।
असल में राजनीतिक दलों की मंशा साफ नहीं है। दिवंगत शरद यादव ने संसद में कहा था कि अगर यह बिल पास होता है तो परकटी महिलाएं संसद में आएंगी। उनकी इस बात का काफी विरोध हुआ था लेकिन किसी ने शरद यादव से नहीं पूछा था कि वे एक पार्टी के प्रमुख हैं तो क्यों नहीं अपनी पार्टी में गरीब और पिछड़ी जाति की महिलाओं को एक तिहाई टिकट दे दे रहे हैं? आरक्षण मिलेगा तभी पिछड़ी जाति की महिलाएं संसद या विधानसभा में पहुंचेंगी यह कहां का नियम है? उसके बिना क्यों लालू प्रसाद, शरद यादव और मुलायम सिंह ने अपनी पार्टी की टिकट गरीब, पिछड़ी, दलित, आदिवासी या अल्पसंख्यक महिलाओं को नहीं दी? अगर उन्होंने आबादी के अनुपात में महिलाओं को टिकट देना शुरू कर दिया होता तो इस बिल की जरूरत ही नहीं थी।
अब भी देर नहीं हुई है। जिस तरह से ममता बनर्जी और नवीन पटनायक ने अपनी पार्टी की 40 फीसदी टिकट महिलाओं को देना शुरू किया है उसी तरह बाकी पार्टियां भी करें। कांग्रेस और भाजपा दोनों 50 या 40 फीसदी नहीं तो कम से कम 33 फीसदी टिकट महिलाओं को दें। जिन पार्टियों को पिछड़ी जाति की महिलाओं की चिंता है और आरक्षण में इसे शामिल कराना चाहती हैं वो पार्टियां 33 फीसदी टिकट पिछड़ी जाति की महिलाओं को देना शुरू करें फिर सारा झगड़ा ही खत्म हो जाएगा। इसके बाद बिल की जरूरत ही नहीं रह जाएगी। असल में महिला आरक्षण भारतीय राजनीति और इस देश के राजनेताओं की हिप्पोक्रेसी का चरम है। यह उनके दोहरेपन की मिसाल है। सारी पार्टियां कथित तौर पर महिला आरक्षण का समर्थन करती हैं लेकिन किसी को महिलाओं को टिकट नहीं देनी है। ‘सामाजिक न्याय के महान योद्धा’ लालू प्रसाद ने अपनी अनपढ़ पत्नी को तो मुख्यमंत्री बना दिया लेकिन पिछड़ी जाति की दूसरी महिलाओं को तभी टिकट देंगे, जब संसद से पास होकर महिला आरक्षण का कानून बनेगा! इससे ज्यादा हिप्पोक्रेसी क्या हो सकती है? जब तक देश के नेताओं का यह दोहरा रवैया खत्म नहीं होगा तब तक किसी न किसी बहाने महिला आरक्षण बिल अटकता रहेगा। इसलिए इस मामले में नेताओं की बड़ी बड़ी बातों पर ध्यान देने की कोई जरूरत नहीं है। उनकी बातें सिर्फ बातें हैं और आंसू घड़ियाली हैं। उनकी बातों पर नहीं उनके आचरण पर नजर रखें।