अस्तित्व की चिंता में अकेले देवगौड़ा की नहीं

देश के सबसे ताकतवर क्षत्रपों में से एक रहे देश के पूर्व प्रधानमत्री और जेडीएस के संस्थापक एचडी देवगौड़ा ने अगले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के साथ तालमेल का ऐलान करते हुए बड़ी मार्मिक बात कही। उन्होंने कहा- मैंने यह फैसला अपनी पार्टी का अस्तित्व बचाने के लिए किया है। हालांकि इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि भाजपा के साथ गठबंधन करने से उनकी पार्टी का अस्तित्व बच जाएगा। लेकिन ऐसे समय में, जब उनकी पार्टी अपने इतिहास का सबसे खराब प्रदर्शन करने के बाद बिखरने और समाप्त होने की कगार पर खड़ी है तो घनघोर निराशा के समय में उन्होंने यह फैसला किया। इस फैसले को दो स्पष्ट कारण हैं। पहला तो यह कि अब तक देवगौड़ा निर्विवाद वोक्कालिगा नेता थे और उनके परिवार का इस वोट पर एकाधिकार था। लेकिन कांग्रेस के डीके शिवकुमार के उभार ने परिवार का एकाधिकार तोड़ दिया है, जो इस साल मई में हुए विधानसभा चुनाव में दिखा। दूसरा कारण देवगौड़ा की उम्र और सेहत है। वे 90 साल के हो चुके हैं। उनको लग रहा है कि अगला लोकसभा चुनाव उनका आखिरी हो सकता है। उनके परिवार में भी सब कुछ ठीक नहीं है। दोनों बेटों- एचडी कुमारस्वामी और एचडी रेवन्ना के बीच सत्ता में हिस्सेदारी की खींचतान स्थायी है। अगर परिवार थोड़े समय और सत्ता से बाहर रहता है तो परिवार की एकता, पार्टी की एकजुटता और बचे हुए मतदाताओं का समर्थन बनाए रखना नामुमकिन हो जाएगा। उनकी यह चिंता जायज है कि अलग रहे तो भाजपा या कांग्रेस उनकी पार्टी और वोट बैंक दोनों को समाप्त कर देंगे।

सवाल है कि क्या यह चिंता अकेले एचडी देवगौड़ा की है? नहीं, यह चिंता देश के कई ताकतवर क्षत्रपों की है, जिनको लग रहा है कि उनको अपनी पार्टी का अस्तित्व बचाए रखने के लिए लीक से हट कर कुछ करना होगा या कोई साहसी फैसला करना होगा। अगला चुनाव कई प्रादेशिक पार्टियों के लिए अस्तित्व की लड़ाई वाला होगा। जितने भी प्रादेशिक क्षत्रप उम्र की ढलान पर हैं उनको इस बात की ज्यादा चिंता है। यह चिंता इसलिए भी बढ़ी है क्योंकि भाजपा और कांग्रेस सहित दूसरी पार्टियों की नजर भी उनकी पार्टी और वोट आधार पर है। ऐसे क्षत्रपों में नीतीश कुमार, मायावती, शरद पवार, नवीन पटनायक और चंद्रबाबू नायडू का नाम मुख्य रूप से लिया जा सकता है।

कर्नाटक में जो स्थिति एचडी देवगौडा की पार्टी जेडीएस की है कमोबेश वही स्थिति बिहार में नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू की है। ये दोनों पार्टियां जनता परिवार की हैं और वीपी सिंह के आंदोलन के समय बनी जनता दल से निकली हैं। लेकिन ये पार्टियां जनता दल की तरह किसी वैचारिक आधार पर नहीं बनी हैं। जिस तरह कर्नाटक में देवगौड़ा ने वोक्कालिगा वोट के दम पर पार्टी बनाई और राजनीति की उसी तरह बिहार में नीतीश कुमार ने लालू यादव के यादव-मुस्लिम वोट की राजनीति के बरक्स लव-कुश यानी कुर्मी व कोईरी का नेतृत्व तैयार किया और बाद में धीरे धीरे इसके साथ गैर यादव अन्य पिछड़ी जातियों व दलितों को जोड़ने का काम किया। लंबी लड़ाई के बाद भाजपा की मदद से वे 2005 में लालू प्रसाद को सत्ता से बेदखल करने में कामयाब रहे। अब 18 साल के बाद वे अपनी पार्टी की चिंता में हैं क्योंकि उनकी पार्टी धीरे धीरे अपना वोट गंवाती जा रही है। निराशा व बेचैनी में वे इधर-उधर हाथ-पैर मार रहे हैं। उनको जितनी चिंता सत्ता में बने रहने की है उससे ज्यादा चिंता पार्टी बचाने की है। यह अच्छी बात है कि उन्होंने देवगौड़ा और लालू प्रसाद की तरह परिवारवाद नहीं किया। लेकिन बुरी बात यह है कि उन्होंने अपनी पार्टी में नेताओं की कोई दूसरी लाइन तैयार नहीं की। इसका नतीजा यह हुआ है कि उनकी पार्टी जिस सामाजिक आधार के दम पर टिकी है उसका प्रतिनिधित्व करने वाला कोई चेहरा उनकी पार्टी में नहीं है।

नीतीश कुमार ने कोईरी-कुर्मी का नेतृत्व नहीं पनपने देने की सोच में आरसीपी सिंह से लेकर उपेंद्र कुशवाहा और सम्राट चौधरी तक को इस्तेमाल किया और किनारे किया। इसी राजनीति की वजह से आज उनके बाद उनकी पार्टी में ललन सिंह, विजय चौधरी, संजय झा, विजेंद्र यादव या अशोक चौधरी जैसे नेता दूसरी कतार में गिने जाते हैं। इनमें से कोई भी जदयू के कोर वोट आधार का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। यही कारण है कि अक्सर यह चर्चा होती रहती है कि उनकी पार्टी का राजद में विलय हो जाएगा यानी पार्टी जहां से निकली थी वहीं चली जाएगी। पहले यह भी कहा जाता था कि भाजपा उनकी पार्टी को निगल जाएगी। भाजपा से उनके अलग होने का एक कारण यह भी था। भाजपा ने कुशवाहा नेता सम्राट चौधरी को प्रदेश की कमान सौंप कर नीतीश और उनकी पार्टी के लिए बड़ा खतरा पैदा कर दिया है। तभी उनके लिए अपनी पार्टी का अस्तित्व बचाए रखना बड़ी चिंता की बात हो गई है। हालांकि नीतीश फिनिक्स की तरह हर बार खड़े होते हैं लेकिन वह भी तभी होगा, जब उम्र और सेहत उनका साथ दे। उनकी उम्र भी 72 साल से ज्यादा हो गई है।

तीसरी क्षत्रप मायावती हैं, जिनकी पार्टी धीरे धीरे अप्रासंगिक होती जा रही है और जिनके सामने पार्टी का अस्तित्व बचाने का सवाल मुंह बाए खड़ा है। उनकी स्थिति देवगौड़ा और नीतीश दोनों से खराब है। उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य की चार बार मुख्यमंत्री रहीं मायावती की पार्टी का सिर्फ एक विधायक है। लोकसभा सांसदों की संख्या जरूर 10 है लेकिन सबको पता है कि वह समाजवादी पार्टी के साथ तालमेल की वजह से है। उनका वोट आधार लगभग आधा हो गया है। चाहे जिस कारण से हो लेकिन उन्होंने न तो अपने परिवार के किसी सदस्य को पार्टी के नेता के तौर पर अधिकृत किया और न किसी दूसरे नेता को। उनकी पार्टी से जुड़े रहे तमाम पिछड़े, अति पिछड़े और दलित नेता या तो पार्टी छोड़ कर जा चुके हैं या हाशिए में हैं। लंबे समय से उनकी पार्टी के वोट आधार पर भाजपा की नजर थी। पिछले दो चुनावों से साफ दिख रहा है कि उनका वोट भाजपा की ओर शिफ्ट कर रहा है। उन्होंने अब जाकर अपने भाई आनंद कुमार के बेटे आकाश आनंद को अपने उत्तराधिकारी के तौर पर आगे किया है और पिछले महीने उनके नेतृत्व में महीने सर्वजन हिताए, सर्वजन सुखाए संकल्प यात्रा की शुरुआत की। उनके लिए भी अगला चुनाव आखिरी मौका होगा। अगर वे चुनाव से पहले सही फैसला नहीं करती हैं तो उनकी पार्टी के सामने भी अस्तित्व का संकट खड़ा होगा।

एनसीपी के संस्थापक शरद पवार का मामला थोड़ा अलग है। उन्होंने अपने भतीजे अजित पवार को उत्तराधिकारी के तौर पर आगे बढ़ाया था लेकिन बाद में उन्हें लगा कि उनकी मेहनत का फल उनकी बेटी सुप्रिया सुले को खाना चाहिए। बिल्कुल यही बात बाल ठाकरे ने भी महसूस की थी तभी अपना सहज उत्तराधिकारी माने जा रहे राज ठाकरे को छोड़ कर उन्होंने उद्धव ठाकरे को पार्टी की कमान सौंपी थी। बहरहाल, पवार अगर जिद छोड़ दें तो अजित पवार के नेतृत्व में उनकी पार्टी फलती-फूलती रहेगी। लेकिन अगर वे बेटी को नेता बनाने की जिद पर अड़े रहते हैं तो दोनों को नुकसान होगा। भाजपा और कांग्रेस फायदे में रहेंगे। सो, उन्हें भी अगले लोकसभा चुनाव में बहुत सोच-समझ कर फैसला करना होगा। ओडिशा में नवीन पटनायक की पार्टी भी बिना नेतृत्व के है। तमाम बड़े नेता पार्टी छोड़ चुके हैं और एक आईएएस अधिकारी के इशारों पर पार्टी चल रही है। जिस दिन पार्टी सत्ता से बाहर हुई या नवीन पटनायक नहीं रहे उस दिन पार्टी का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। चंद्रबाबू नायडू भी अस्तित्व के संकट से जूझ रहे हैं और भाजपा के साथ जाकर अस्तित्व बचाने का प्रयास कर रहे हैं। जिन प्रादेशिक क्षत्रपों ने पहले उत्तराधिकार तय कर दिया उनकी पार्टियां अब भी बची हुई हैं और आगे भी बची रहेंगी। इस श्रेणी में शिबू सोरेन, लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव, करुणानिधि, प्रकाश सिंह बादल, के चंद्रशेखर राव आदि के नाम लिए जा सकते हैं।

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