मुकाबले का मैदान सज गया
बेंगलुरू और दिल्ली में हुई दो बैठकों के बाद अगले लोकसभा चुनाव का मैदान सज गया है। एक तरफ भाजपा के नेतृत्व में 38 पार्टियों का एनडीए है तो दूसरी ओर अघोषित रूप से कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष की 26 पार्टियां हैं, जिनके गठबंधन का नाम ‘इंडिया’ है। सो, 2024 का मुकाबला एनडीए बनाम ‘इंडिया’ का है। भाजपा गठबंधन के नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं लेकिन अब तकनीकी रूप से मुकाबला मोदी बनाम अन्य नहीं है। भाजपा के नेता अब भी पूछेंगे कि मोदी के मुकाबले विपक्ष का चेहरा कौन है लेकिन अब यह सवाल अप्रासंगिक हो गया क्योंकि अब सत्तापक्ष की ओर से मोदी नहीं लड़ रहे हैं, बल्कि एनडीए लड़ रहा है, जो फिलहाल 38 पार्टियों का गठबंधन और भाजपा उसका नेतृत्व कर रही है। मोदी उस गठबंधन के नेता हैं लेकिन अब वे और भाजपा यह कहने की स्थिति में नहीं हैं कि वे अकेले समूचे विपक्ष पर भारी हैं। विपक्ष पर भारी पड़ने के लिए उनको विपक्षी पार्टियों की संख्या से ज्यादा संख्या में अपनी समर्थक पार्टियां दिखानी पड़ी हैं। सो, अगला चुनाव दो गठबंधनों का मुकाबला है। अब चाह कर भी भाजपा इस स्थिति को नहीं बदल सकेगी।
यह पता नहीं है भाजपा ने किस दूरगामी रणनीति को ध्यान में रख कर ऐसा किया है या विपक्षी पार्टियों के गठबंधन से घबरा कर उसने यह तात्कालिक कदम उठाया है। क्योंकि भाजपा के चुनाव रणनीतिकारों को पता होगा कि उन्होंने ब्रांड नरेंद्र मोदी का महत्व घटा दिया है। ऊपर से ऐसी पार्टियों को गठबंधन में शामिल किया है, जिनके पास थोड़े थोड़े वोट तो हैं लेकिन उनके नेताओं की साख बहुत अच्छी नहीं है। भाजपा के साथ रहे नेताओं ने फिर से गठबंधन में वापसी की है। लेकिन हकीकत यह है कि भाजपा से अलग होने के बाद उन्होंने उसके बारे में जो बयान दिए थे, वो बयान भले राष्ट्रीय मीडिया में नहीं दिखाई दें लेकिन जमीनी स्तर पर लोगों को पता हैं। इन सबके फिर से भाजपा के साथ आने से आम लोगों में यह मैसेज गया है कि सत्ता के लिए दोनों तरफ समझौता किया जा रहा है। सत्ता के लिए भ्रष्ट व परिवारवादी गठबंधन बनाने का आरोप भाजपा विपक्षी पार्टियों पर लगा रही है लेकिन यह आरोप उसके ऊपर भी चस्पां हो रहा है। अशोका होटल में प्रधानमंत्री मोदी के साथ फोटो खिंचवा रहे नेताओं में अनेक चेहरे भ्रष्टाचार और परिवारवाद के प्रतीक के तौर पर आम लोगों के दिमाग में दर्ज हैं।
हालांकि अगर दोनों गठबंधनों की ताकत और कमजोरी का आकलन करें तो जो तस्वीर बनती है वह विपक्ष के लिए बहुत अच्छी नहीं है। पिछले लोकसभा चुनाव में यानी 2019 में भाजपा और उसकी तब की सहयोगी पार्टियों को 45 फीसदी वोट मिले थे, जिसमें अकेले भाजपा का वोट 37.6 फीसदी था। दूसरी ओर कांग्रेस के साथ बेंगलुरू में जिन पार्टियों की बैठक हुई उन सबको मिला कर कुल वोट 38 फीसदी के करीब यानी भाजपा के बराबर मिला था। यानी अकेले भाजपा बेंगलुरू बैठक में शामिल विपक्ष की सभी पार्टियों पर भारी है। यह भी ध्यान रखने की बात है कि बेंगलुरू बैठक में शामिल विपक्षी पार्टियां भाजपा विरोध का पूरा वोट हासिल करने का दावा नहीं कर सकती हैं क्योंकि कई बड़े राज्यों में सत्तारूढ़ या मुख्य विपक्षी पार्टियां दोनों गठबंधनों से अलग हैं। ओडिशा में बीजू जनता दल, आंध्र प्रदेश में वाईएसआर कांग्रेस और तेलुगू देशम पार्टी, तेलंगाना में भारत राष्ट्र समिति और पंजाब में अकाली दल ऐसी बड़ी पार्टियां हैं, जो फिलहाल किसी गठबंधन के साथ नहीं हैं। सो, विपक्ष की उम्मीद इस बात पर है कि 10 साल के राज के बाद सत्ता विरोधी लहर से भाजपा और उसकी सहयोगियों का वोट कम होगा और वह वोट उसको चुनौती दे रहे विपक्षी गठबंधन को मिल जाएगा।
इस उम्मीद का पूरा होना भी आसान नहीं है क्योंकि पिछले चुनाव में 224 लोकसभा सीटों पर भाजपा को 50 फीसदी से ज्यादा वोट मिले थे। यह आंकड़ा 2014 के चुनाव में इससे बहुत कम था। 2014 में 131 सीटों पर भाजपा उम्मीदवारों को 50 फीसदी से ज्यादा वोट मिले थे। यानी पांच साल राज करने के बाद भाजपा को करीब एक सौ अतिरिक्त सीटों पर 50 फीसदी से ज्यादा वोट मिले। यह ट्रेंड ओवरऑल वोट प्रतिशत में भी दिखता है। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियों को 38.5 फीसदी वोट मिले थे, जो 2019 में बढ़ कर 45 फीसदी हो गए। यानी पांच साल राज करने के बाद साढ़े छह फीसदी वोट का इजाफा हुआ। यह सत्ता के लिए सकारात्मक वोट था। यानी 2019 में प्रो इन्कम्बैंसी वोटिंग हुई थी। क्या इस बार एंटी इन्कम्बैंसी वोटिंग हो सकती है?
विपक्षी पार्टियां इसी उम्मीद में हैं। वे पिछले दो चुनाव के आंकड़ों को खारिज कर रही हैं। उनका कहना है कि अब आम मतदाता की धारणा बदल गई है। उसने नरेंद्र मोदी सरकार से जो उम्मीद बांधी थी वह उम्मीद टूट गई है। उसका मोहभंग हुआ है क्योंकि महंगाई व बेरोजगारी कम नहीं हुई। गरीबी बढ़ती गई है। अर्थव्यवस्था की स्थिति खराब है। सामाजिक विभाजन बढ़ा है। चीन से लगती सीमा असुरक्षित हुई है। साथ ही भाजपा विरोधी सभी पार्टियां एकजुट होकर उसे चुनौती दे रही हैं, जिससे उनका वोट नहीं बंटेगा। भाजपा के हर उम्मीदवार के खिलाफ विपक्ष का एक उम्मीदवार होगा, जिसे सिर्फ गठबंधन के सामाजिक समीकरण का वोट नहीं मिलेगा, बल्कि सत्ता विरोध का वोट भी मिलेगा। अगर ऐसा होता है तो भाजपा और विपक्षी गठबंधन दोनों से समान दूरी रखने वाली पार्टियों को भी इसका निश्चित नुकसान होगा।
अगर दोनों गठबंधनों को राज्यवार देखें तो विपक्ष की ताकत ज्यादा दिखाई देगी। मिसाल के तौर पर बिहार में भाजपा की पुरानी सहयोगी जदयू ने उसका साथ छोड़ दिया है। भाजपा तीन छोटी सहयोगी पार्टियों से उस नुकसान की भरपाई नहीं कर पाएगी। इसी तरह झारखंड में भाजपा बनाम आजसू के मुकाबले जेएमएम, कांग्रेस, राजद व जदयू की ताकत बड़ी है। महाराष्ट्र में शिव सेना व एनसीपी से अलग हुए नेताओं के दम पर भाजपा ठाकरे परिवार वाली शिव सेना और शरद पवार की एनसीपी वाले कांग्रेस गठबंधन का मुकाबला कर पाएगी, यह थोड़ा मुश्किल लग रहा है। पंजाब में राजनीति की केंद्रीय ताकत आम आदमी पार्टी है और दूसरे नंबर पर कांग्रेस है। वहां भाजपा अगर अकाली दल के साथ गठबंधन करती भी है तो मुकाबला मुश्किल होगा। दक्षिण भारत में भाजपा सिर्फ कर्नाटक में मजबूत है लेकिन विधानसभा चुनाव हारने के बाद वहां भी उसकी राजनीति पटरी से उतरी है। सो, पूरा दक्षिण भारत उसके हाथ से निकलता दिख रहा है। मणिपुर की घटना के बाद पूर्वोत्तर की राजनीति पर गहरा असर होने की संभावना है। दिलचस्प बात यह है कि उसके साथ दिल्ली की बैठक में शामिल अन्ना डीएमके को छोड़ कर कोई भी पार्टी किसी भी राज्य में बड़ा असर डालने की स्थिति में नहीं है।
हां, यह जरूर है कि बिहार और झारखंड छोड़ कर भाजपा हिंदी पट्टी के राज्यों में अपने दम पर मजबूत है। हिंदी पट्टी के राज्यों- खास कर उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और दिल्ली में भाजपा अपनी ताकत के दम पर लड़ेगी। इसके अलावा गुजरात और महाराष्ट्र भी उसकी अपनी ताकत वाला राज्य है। इन राज्यों में लोकसभा की 245 सीटें हैं, जिनमें से 204 सीटें भाजपा के पास हैं, जिनमें से 160 सीटों पर भाजपा के उम्मीदवारों को 50 फीसदी से ज्यादा वोट मिले थे। यह भाजपा की ताकत वाला क्षेत्र है और महाराष्ट्र को छोड़ दें तो बाकी राज्यों में न भाजपा का गठबंधन काम आना है और न विपक्षी पार्टी का गठबंधन काम आना है। इन 245 में से महाराष्ट्र को छोड़ कर 197 सीटों पर भाजपा और कांग्रेस का मुकाबला होना है। भाजपा की जो हवा बनेगी वह इन राज्यों और इन सीटों से बनेगी। बाकी गठबंधन तो धारणा को प्रभावित करने के काम आएगा।