सोनिया गांधी क्या सूत्रधार बनेंगी?

पटना में 23 जून को हुई विपक्षी पार्टियों की बैठक के बाद से देश की राजनीति में ऐसा क्या हुआ है, जिसकी वजह से विपक्षी पार्टियों की बेंगलुरू बैठक में पूरा फोकस सोनिया गांधी पर शिफ्ट हो गया है? पटना की बैठक में पूरा फोकस राहुल गांधी पर था। उनके विदेश में होने की वजह से पटना बैठक की तारीख टली थी। जब वे लौटे उसके बाद उनकी मौजदूगी में बैठक हुई। बैठक के बाद प्रेस कांफ्रेंस में राजद नेता लालू प्रसाद ने उनको शादी का जिक्र छेड़ कर एक तरह से उनको विपक्षी पार्टियों की बारात का दूल्हा बनाने का दांव भी चला। लेकिन उसके बाद जब बेंगलुरू की बैठक तय हुई तो सबसे ज्यादा चर्चा इस बात को लेकर हुई कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने आठ नई पार्टियों को न्योता दिया है और दूसरी बात यह कि बैठक में सोनिया गांधी भी शामिल होंगी। सोनिया ने बैठक के पहले दिन यानी 17 जुलाई को विपक्षी नेताओं के लिए एक रात्रिभोज की मेजबानी भी की। कांग्रेस और विपक्ष की दूसरी पार्टियों में भी इस बात को लेकर उत्साह है कि सोनिया गांधी विपक्ष को एक करने के अभियान में सक्रिय हुई हैं। ध्यान रहे 2004 में विपक्ष को एकजुट करके यूपीए बनाने का प्रयोग सोनिया ने किया था इसलिए विपक्षी नेताओं की उम्मीद बढ़ी है कि इस बार भी वे ऐसा कर सकती हैं।

तभी सवाल है कि जो काम राहुल गांधी कर रहे थे उस काम में सोनिया गांधी को आगे आने की क्या जरूरत आन पड़ी? इसे समझने के लिए 23 जून के बाद के राजनीतिक घटनाक्रम को बारीकी से देखना होगा। सबसे बड़ा घटनाक्रम यह था कि शरद पवार की एनसीपी में टूट हो गई। उनके भतीजे अजित पवार उनसे अलग हो गए और राज्य की भाजपा-शिव सेना सरकार में उप मुख्यमंत्री बन गए। उनके साथ 30 से ज्यादा विधायक होने की बात कही जा रही है। यह अलग बहस का विषय है कि पार्टी में यह विभाजन शरद पवार के किसी लंबे खेल का हिस्सा है या सचमुच की परिघटना है। लेकिन जब एनसीपी टूटी तो कहा गया कि पार्टी के अनेक नेता इस बात से नाराज थे कि विपक्षी गठबंधन के नेता राहुल गांधी कैसे हो सकते हैं। वे नहीं चाहते कि शरद पवार जैसा बड़ा नेता राहुल के नेतृत्व में काम करे। इससे पहले कांग्रेस छोड़ने वाले तमाम नेताओं ने राहुल को निशाना बनाया था और मीडिया में यह नैरेटिव बना था कि हिमंत बिस्वा सरमा हों या ज्योतिरादित्य सिंधिया हों या गुलाम नबी आजाद, सबने राहुल के कारण कांग्रेस छोड़ी। अब सहयोगी पार्टियों में भी विभाजन के लिए राहुल को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। इसका मकसद राहुल के नेतृत्व और विपक्ष की राजनीति में उनकी ऑथोरिटी को कमजोर करके दिखाना है।

दूसरा घटनाक्रम यह हुआ कि समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने हैदराबाद जाकर भारत राष्ट्र समिति के अध्यक्ष और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव से मुलाकात की। अखिलेश ने यह संदेश दिया कि वे भले पटना की बैठक में शामिल हुए लेकिन उन्होंने गैर कांग्रेस और गैर भाजपा तीसरे मोर्चे की संभावना को समाप्त नहीं किया है। तीसरा घटनाक्रम पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस का विवाद है। इन सबकी पृष्ठभूमि में देखें तो ऐसा प्रतीत होगा कि विपक्षी पार्टियों के कुछ मजबूत क्षत्रप नेता कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व के साथ बहुत सहज नहीं हैं। सोनिया गांधी ने इस बात को भांप लिया है और इसलिए उन्होंने आगे बढ़ कर विपक्षी एकता का सूत्रधार बनने की पहल की है। हालांकि उनकी सेहत को देखते हुए यह संभव नहीं है कि वे ज्यादा भागदौड़ कर सकें या हर छोटे बड़े पहलू पर नजर रखें। लेकिन इतना निश्चित है कि वे बेंगलुरू की बैठक में सभी विपक्षी पार्टियों के आहत अहम को संतुष्ट करने की कोशिश करें। उन्हें बताएं कि कांग्रेस राहुल का नेतृत्व उनके ऊपर नहीं थोप रही है। वे यह भरोसा भी दे सकती हैं कि विपक्षी नेताओं को अभी से नेतृत्व की चिंता करने की जरूरत नहीं है। आखिर कांग्रेस का इतिहास छोटी पार्टियों की सरकार बनवाने का रहा है। चंद्रशेखर से लेकर एचडी देवगौड़ा और आईके गुजराल तक इसकी मिसाल हैं।

इसमें संदेह नहीं है कि पिछले 20 साल में देश की राजनीति बहुत बदल गई है। नेता बदल गए हैं और नैरेटिव भी बदल गया है। लेकिन एक चीज ऐसी है, जो कभी नहीं बदलती है। वह हर नेता की सत्ता में आने की चाहना है। सो, कांग्रेस या राहुल गांधी से लगाव नहीं होने के बावजूद अगर विपक्षी नेताओं को लगता है कि उसकी धुरी पर एक साथ आकर भाजपा और नरेंद्र मोदी को चुनौती दी जा सकती है और सत्ता हासिल की जा सकती है तो वे अपने निजी अहम को थोड़े समय के लिए किनारे रख सकते हैं। सो, कांग्रेस के लिए जरूरी है कि वह विपक्षी नेताओं के बीच यह भरोसा बनवाए कि भले वह पहले से कमजोर हो गई है लेकिन अब भी भाजपा को चुनौती देने की वास्तविक ताकत उसी के पास है। सोनिया गांधी यह मैसेज बनवा सकती हैं। उन्होंने 2004 के लोकसभा चुनाव के बाद सिर्फ यूपीए नहीं बनवाई थी, बल्कि उससे पहले अजेय माने जा रहे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को हराया था। भाजपा को हरा कर कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनी थी तभी उसके नेतृत्व में यूपीए बना था। उसके बाद 2009 में जब लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बना कर भाजपा लड़ी थी तब कांग्रेस ज्यादा सीटों के साथ दोबारा सत्ता में लौटी थी। यानी सोनिया गांधी को भाजपा के दो सबसे बड़े नेता नेताओं- अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी दोनों को हराने का श्रेय हासिल है।

सोनिया गांधी के साथ 2004 में काम करने वाली टीम के कई सदस्य अब उनके साथ नहीं हैं। अहमद पटेल, माखनलाल फोतेदार, ऑस्कर फर्नांडीज जैसे कई नेताओं का निधन हो गया तो गुलाम नबी आजाद जैसे नेता पार्टी छोड़ गए। जनार्दन द्विवेदी ने अपने को सक्रिय राजनीति से दूर कर लिया है। इसके बावजूद कई पुराने नेता और क्षत्रप अब भी सोनिया के साथ हैं और उन्हें अपना सर्वोच्च नेता मानते हैं। मुकुल वासनिक, अंबिका सोनी, अशोक गहलोत, दिग्विजय सिंह जैसे कई नेता हैं, जिनको न सिर्फ कांग्रेस के संगठन की एक एक चीज पता है, बल्कि विपक्ष की सभी पार्टियों के नेताओं के साथ इनके बहुत अच्छे निजी संबंध हैं। अहमद पटेल का एक मिथक कांग्रेस के साथ बरसों से चिपका हुआ है लेकिन अगर मौका मिले तो दिग्विजय सिंह और कमलनाथ भी देश के किसी भी नेता, उद्योगपति, पत्रकार या अधिकारी से बातचीत कर सकते हैं।

दूसरी बात यह है कि अगर कांग्रेस के पुराने नेता तस्वीर से गायब हुए हैं तो दूसरी विपक्षी पार्टियों में भी ऐसा ही हुआ है। अब कांग्रेस को तमिलनाडु में करुणानिधि के साथ नहीं, बल्कि स्टालिन के साथ डील करना है, बिहार में लालू प्रसाद से नहीं, बल्कि तेजस्वी के साथ, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की बजाय अखिलेश यादव से, झारखंड में शिबू सोरेन की बजाय हेमंत सोरेन से और कम्युनिस्ट पार्टियों में हरकिशन सिंह सुरजीत और एबी बर्धन की बजाय सीताराम येचुरी और डी राजा से डील करना है। इनमें से कई नेता ऐसे हैं, जिनका राहुल गांधी के प्रति सद्भाव है और वे उनके साथ काम करने को राजी हैं। कुछ नेताओं को जरूर राहुल गांधी से समस्या है लेकिन उनको भी इस हकीकत का अंदाजा है कि प्रचार के दम पर राहुल की चाहे जैसी छवि बनाई गई हो लेकिन भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ सबसे गंभीर और जमीनी राजनीतिक व वैचारिक लड़ाई राहुल गांधी ही लड़ रहे हैं। सोनिया गांधी सूत्रधार के तौर पर विपक्षी पार्टियों को इस हकीकत का अहसास कराते हुए कांग्रेस के नेतृत्व में साथ मिल कर लड़ने का आधार तैयार कर सकती हैं।

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