मजदूर आंदोलन के अग्रदूत थे मेघाजी लोखंडे
मई दिवस के नाम से प्रसिद्ध एक मई सार्वजनिक अवकाशों का दिन होता है। मई दिवस के दिन राजनीतिक दलों, कामगार यूनियनों व समाजवादी समूहों द्वारा विभिन्न कार्यक्रम व समारोह आयोजित करते हुए अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस अथवा श्रम दिवस मनाया जाता है। हालांकि मई दिवस को प्रेरणा संयुक्त राज्य अमेरिका के मजदूर आंदोलनों और 1886 में शिकागो में श्रमिकों द्वारा काम की अवधि आठ घंटे करने और एक दिन साप्ताहिक अवकाश घोषित करने की मांग को लेकर हड़ताल पर चले जाने से मिली, तथापि प्रथमतः 1 मई अर्थात मई दिवस को अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मनाये जाने की मान्यता 1889 में पेरिस में अन्तर्राष्ट्रीय महासभा की द्वितीय बैठक में फ्रेंच क्रांति को स्मरण करते हुए तत्सम्बन्धी एक प्रस्ताव पारित किये जाने से मिली। उसी समय से विश्व भर के 80 देशों में मई दिवस को राष्ट्रीय अवकाश के रूप में मान्यता प्रदान की। वर्तमान में यह लगभग वैश्विक रूप ले चुका है।
इसका मूलभूत आशय व उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मजदूरों को मुख्य धारा में बनाए रखना और उन्हें अपने अधिकारों के प्रति समाज में जागरुकता लाना है। यह सच है कि मई दिवस को अन्तर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस के रूप में परिवर्तित करने का श्रेय विदेशियों को है, लेकिन हैरतनाक तथ्य यह है कि ईसाईयों का अवकाश दिवस के रूप में प्रसिद्ध रविवार की छुट्टी एक भारतीय की देन है। और रविवार को सार्वजनिक अवकाश घोषित कराने का श्रेय एक भारतीय को है। आज रविवार अवकाश, छुट्टी का दिन होता है। रविवार को विद्यालय, कार्यालय, बैंक सभी बंद और इनमें कार्य करने वालों की दिन भर की फुर्सत होती है। दफ्तरों और फैक्ट्रियों में काम करने वालों के लिए रविवार का दिन बहुत ही खास होता है। हाथ पर लगी और दीवारों पर टंगी घड़ियों के अतिरिक्त मनुष्य के मस्तिष्क, दिमाग में भी एक घड़ी चलती रहती है। आमतौर पर इसमें रविवार आने की आहट मात्र से यह काम पर लगे लोगों को खुशी दे जाती है, क्योंकि पूरे सप्ताह तमाम भागदौड़ के बाद रविवार ही एक ऐसा दिन होता है, जब ज्यादातर लोगों को छुट्टी मिलती है।
ऐसे लोग इस दिन का बेसब्री से इंतजार करते हैं, क्योंकि पूरे सप्ताह काम करने के बाद उन्हें इस दिन छुट्टी मिलती है, जिसका उपयोग वे अपने व्यक्तिगत कार्य, घूमने और आराम करने में करते हैं। 10 जून 1890 को ब्रिटिश ने पहली बार रविवार को छुट्टी की घोषणा की थी। इसके पूर्व सप्ताह के सातों दिन काम करना पड़ता था। उस समय कम का सप्ताह सोमवार से शुरू नहीं होता था और रविवार पर खत्म भी नहीं होता था। ईसाई लोगों के लिए रविवार का दिन धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होता है। इस दिन ईसाई लोग चर्च में जाकर प्रार्थना करते हैं। इस कारण ब्रिटिश लोग रविवार के दिन कामकाज नहीं करते थे। लेकिन भारतीयों को काम करना पड़ता था। इस भेदभाव को देखकर धीरे-धीरे कपड़ा मिल में काम करने वाले भारतीय मजदूरों में भी यह मांग उठने लगी कि उन्हें भी सप्ताह में एक दिन काम से छुट्टी दी जाए। नारायण मेघाजी लोखंडे ज्योतिराव फुले के सत्यशोधक आंदोलन के कार्यकर्ता थे। और कामगार नेता भी थे।
अंग्रेजों के समय में हफ्ते के सातों दिन मजदूरों को काम करना पड़ता था। नारायण मेघाजी लोखंडे जी का यह मानना था कि हफ्ते में सात दिन हम अपने परिवार के लिए काम करते हैं। लेकिन जिस समाज की बदौलत हमें नौकरियां मिली है उस समाज की समस्या छुड़ाने के लिए हमें एक दिन छुट्टी मिलनी चाहिए। उसके लिए उन्होंने अंग्रेजों के सामने 1881 में प्रस्ताव रखा, लेकिन अंग्रेज यह प्रस्ताव मानने के लिए तैयार नहीं थे। इसलिए आखिरकार नारायण मेघाजी लोखंडे को रविवार की छुट्टी के लिए 1881 में आंदोलन करना पड़ा था। आखिरकार 1889 में अंग्रेजों को रविवार की छुट्टी घोषित करनी पड़ी।
भारत में श्रमिक आंदोलन के अग्रदूत नारायण मेघाजी लोखंडे का जन्म 1848 में पुणे जिले के कन्हेरसर में एक निर्धन फूल माली जाति के साधारण परिवार में हुआ था। कालांतर में इनका परिवार आजीविका के लिए थाने आ गया। थाणे से ही लोखंडे ने मैट्रिक की परीक्षा पास की थी। परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण उच्च शिक्षा की इनकी इच्छा पूर्ण न हो सकी। और गुजर-बसर के लिए उन्होंने रेलवे के डाक विभाग में नौकरी करनी शुरू कर दी। बाद में इन्होने मुंबई टेक्सटाइल मेल में स्टोर कीपर का कार्य कुछ समय के लिए किया। यहीं पर लोखंडे को मजदूरों की दयनीय स्थिति को समझने का अवसर मिला और वे कामगारों की समस्याओं से अवगत हुए। और उन्होंने स्वयं भी करीब से यह सब महसूस किया था। इसके बाद लोखंडे ने 1880 में दीनबंधु नामक जनरल के संपादन का दायित्व ग्रहण किया, जिसका निर्वहन उन्होंने अपनी मृत्यु सन 1897 तक बखूबी किया।
वह उस जर्नल में प्रकाशित होने वाले अपने तेज़स्वी लेखों के माध्यम से मालिकों द्वारा श्रमिकों के शोषण का प्रभावपूर्ण तरीके से चित्रण करना व उसकी आलोचना और उनकी कार्य परिस्थितियों में बदलाव का समर्थन किया करते थे। समाज के उपेक्षित, असुरक्षित व असंगठित वर्गों को संगठित करने का अभियान उन्होंने यहीं से प्रारम्भ किया जो जीवन पर्यंत चलता ही रहा। सन 1884 में बॉम्बे हेड एसोसिएशन नाम से भारत में उन्होंने प्रथम ट्रेड यूनियन की स्थापना की और इसके अध्यक्ष भी रहे। 1881 में तत्कालीन अंग्रेजी सरकार ने मजदूरों की मांग व दबाव के कारण कारखाना अधिनियम बनाया। लेकिन मजदूर इस अधिनियम से संतुष्ट नहीं थे। ब्रिटिश सरकार को 1884 में इस अधिनियम में सुधार के लिए जांच आयोग नियुक्त करना पड़ा। इस आयोग के माध्यम से उन्होंने पहली बार अंग्रेजों से कारखाना अधिनियम में बदलाव करने की बात रखी थी, लेकिन उनकी मांगों को सरकार ने खारिज कर दिया था। उसी वर्ष लोखंडे ने देश की पहली श्रमिक सभा का आयोजन किया। इसमें उन्होंने मजदूरों के लिए रविवार के अवकाश की मांग को उठाया। साथ ही भोजन करने के लिए छुट्टी, काम के घंटे निश्चित करने का प्रस्ताव, काम के लिए किसी तरह की दुर्घटना हो जाने की स्थिति में कामगार को सवेतन छुट्टी और दुर्घटना के कारण किसी श्रमिक की मृत्यु हो जाने की स्थिति में उसके आश्रितों को पेंशन मिलने के प्रस्ताव पर गुहार भी पहली बार लगाई गई।
इन सभी मांगों को लेकर एक याचिका तैयार की गई। जिसमें 5500 मजदूरों ने हस्ताक्षर किए। जैसे ही याचिका फैक्ट्री कमीशन के सामने पहुंची, मिल मालिकों ने विरोध शुरू कर दिया। उनकी मिलों में काम करने वाले मजदूरों को क्षमता से दोगुना काम देकर प्रताड़ित किए जाने लगा। घर के बच्चों को भी काम में झोंक दिया गया। अपनी याचिका को सरकार के द्वारा नजरअंदाज किये जाते देख लोखंडे ने पूरे देश में आंदोलन छेड़ दिया। जिसमें मिल मजदूरों ने भी उनका साथ दिया। इसके बाद लोखंडे देश के अलग-अलग हिस्सों में गए। और श्रमिकों के लिए सभाएं की। इनमें सबसे अहम सभा 1890 में मुंबई के रेसकोर्स मैदान में आयोजित हुई, जिसमें मुंबई के अतिरिक्त आस-पास के जिलों से आए करीब 10000 मजदूरों ने हिस्सा लिया। इस सभा का असर यह हुआ कि मजदूरों ने मिलों में काम करने से साफ इनकार कर दिया। बाद में सरकार के द्वारा फैक्ट्री श्रम आयोग का गठन किया गया, जिसमें श्रमिकों का प्रतिनिधित्व करने का अवसर लोखंडे को मिला। लोखंडे के अथक प्रयासों के बाद मजदूरों को भोजन का अवकाश मिलने लगा। काम के घंटे तय हो गए, लेकिन साप्ताहिक अवकाश अभी तय नहीं हुआ। इसके लिए 1890 में एक बार फिर से लोखंडे ने श्रमिक आंदोलन शुरू किया। इस संघर्ष में सबसे ज्यादा महिला कर्मचारियों ने भागीदारी दिखाई थी। तब जाकर 10 जून 1890 को रविवार के दिन भारत को पहला साप्ताहिक अवकाश मिला था। इसके बाद अंग्रेजों ने 1947 को भारतीय स्वाधीनता संग्राम के कारण अपनी सत्ता समेटनी पड़ी, लेकिन उनका निर्धारित किया गया रविवार अवकाश आज भी दिया जा रहा है। भारत सरकार ने वर्ष 2005 में लोखंडे के नाम से डाक टिकट जारी कर उन्हें सम्मान दिया था। अपने परिवार और देश की सेवा करने हेतु मजदूरों के लिए रविवार का एक दिन की अवकाश की मांग करने वाले लोखंडे के द्वारा1895 में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच दंगों के दौरान किये गए कार्यों के लिए राव बहादुर की उपाधि से भी सम्मानित किया गया था। 9 फरवरी 1897 को मुंबई में नारायण मेघाजी लोखंडे की मृत्यु हो गई। भारतीय श्रम आन्दोलन के जनक नारायण मेघाजी लोखंडे को मजदूर दिवस पर कोटिशः नमन।