गांव-देहात में गोचर जमीन की बढती कमी!
भारत कृषि प्रधान देश है, और देश की अधिकांश आबादी गांवों में बसती है। कृषि के साथ ही पशुपालन ग्रामीणों की आजीविका का मुख्य साधन है। पशुधन देश के कृषि, व्यापार, उद्योग आदि उपयोगी क्षेत्रों की आधारशिला है। ग्रामीण भारत की बहुत बड़ी आबादी पशुपालन उद्योग से जुड़कर गाय, भैंस, बकरी और भेड़ आदि पशु बहुतायत में पालन कर अपनी आजीविका को साधने में साधनारत्त है। प्राचीन काल से ही हमारे देश के धर्म, संस्कृति, सुख- शांति, विकास, समृद्धि में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले पशुधन की साधना से लोग जीवन की नैय्या पार लगाते रहे हैं। पशुओं की जीवनरेखा चरागाह अर्थात चारागाह का पशुओं की साधना में अत्यंत महत्व है। पशुओं के चरने की जमीन को चरागाह अथवा चारागाह कहते हैं। इस भूमि को गोचर भूमि भी कहा जाता है। चरागाह पशुरक्षक व पशु संवर्धन की जीवनरेखा है। देश के धर्म, संस्कृति, कृषि, व्यापार, उद्योग, समृद्धि, सामाजिक व्यवस्था तथा जनता की शांति व सुरक्षा की जीवनरेखा देश के समृद्ध चरागाह ही होते हैं। स्वर्णाभूषणों को सुरक्षित रखे जाने की भांति देश के पशुधनों को चरागाहों में संभाले, सुरक्षित रखे जाने की आवश्यकता है, परन्तु दुखद यह है कि पशुओं के चरने की गोचर भूमि अर्थात चारागाह अब खत्म हो चली है। गोचर भूमियों अर्थात परती भूमियों को आवास, विभिन्न प्रतिष्ठानादि के निर्माण अथवा अन्यान्य गतिविधियों हेतु अतिक्रमण कर लिए जाने से पशुओं के चरने की जगह तो छोडिये, उनके घूमने- फिरने की जगह भी कम हो चली है। बड़ी संख्या में पाले गए इन पशुओं के लिए चारा की कमी निरंतर बढ़ते जाने से कृषक चिंतित हैं।
पशुओं को भोजन देना और पशुओं के लिए चारागाह छोड़ना भारत में पुण्यमय कार्य माना जाता है। पद्मपुराण में इसकी महिमा गान करते हुए कहा गया है –
गोप्रचारं यथाशक्ति यो वै त्यजति हेतुना।
दिने दिने ब्रह्मभोज्यं पुण्यं तस्य शताधिकम्।।
तस्माद् गवां प्रचारं तू मुक् त्वा स्वर्गात्र हीयते।
यश्छिनत्ति द्रुम पुण्यं गोप्रचारं छिनत्यपि।।
तस्यैकविंशपुरुषाः पच्यन्ते रौरवेषु च।
गोचारध्नं ग्रामगोपः शक्ति ज्ञात्वा तू दण्डयेत्।।
-पद्मपुराण,सृष्टि० 51/38-40
अर्थात-जो मनुष्य गौओं के लिए यथाशक्ति गोचरभुमि छोड़ता है, उसको प्रतिदिन सौसे अधिक ब्राह्मण भोजनका पुण्य प्राप्त होता है। गोचर भूमि छोड़नेवाला कोई भी मनुष्य स्वर्ग भ्रष्ट नहीं होता। जो मनुष्य गोचरभूमि रोक लेता है और पवित्र वृक्षों को काट डालता है। उसकी इक्कीस पीढ़ी रौरव नरक में गिरती है। जो व्यक्ति गौओंके चरने में बाधा देता है, समर्थ ग्रामरक्षक को चाहिए कि उसे दण्ड दे।
आदि ग्रन्थ वेद में गौ, गोचर भूमि की अत्यंत महिमागान की गई है। पद्मपुराण, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य तथा नारदादि स्मृतियों में भी गोचर भूमि का वर्णन अंकित है। गौ के महत्त्व के कारण भारत जैसे कृषि प्रधान देश में गोचर भूमि छोडऩा एक पुनीत कार्य समझा जाता था। गोचर भूमि का महत्त्व बताते हुए ऋग्वेद में कहा गया है कि गायें जिस तरह गोचर भूमि की ओर जाती हैं, उसी तरह उस महान तेजस्वी परमात्मा की प्राप्ति की कामना करती हुई बुद्धि उसी की ओर दौड़ती रहे। ईश्वर की ओर बुद्धि लगी रहे। ऋग्वेद अनुसार सुरपति इन्द्र ने दूर से प्रकाश दीख पड़े, इस हेतु सूर्य को द्युलोक में रखा और स्वयं गायों के संग पर्वत की ओर प्रस्थान किया। दूसरे शब्दों में गायों को चरने के लिए पर्वतों पर भेजना चाहिए। पर्वत भी गोचर भूमि की श्रेणी में आते हैं। पर्वत का पर्याय गोत्र है, जिसका एक अर्थ गायों को त्राण देने वाला भी होता है।
पर्वतों पर गौओं को पर्याप्त चारा और जल तो सुलभ रहता ही है, उन्हें शुद्ध वायु और व्यायाम लाभ भी हो जाता है। मान्यता है कि यथाशक्ति गोचर भूमि छोडऩे वाले को नित्य प्रति सौ से अधिक ब्राह्मण भोजन कराने का पुण्य मिलता है, और वह स्वर्ग का अधिकारी होता है, नरक में नहीं जाता। गोचर भूमि को रोकने या बाधा पहुंचाने वाले तथा वृक्षों को नष्ट करने वाले इक्कीस पीढ़ी तक रौरव नरक में पड़े रहते हैं। पद्मपुराण के अनुसार चरती हुई गौओं को बाधा पहुंचाने वालों को समर्थ ग्राम रक्षक दण्ड दे। पद्मपुराण में चरती हुई गाय को रोकने से नरक में जाने का प्रसंग अंकित है। कथानुसार स्वयं महाराज जनक को चरती हुई गाय को रोकने के फलस्वरूप नरक का द्वार देखना पड़ा था। पूर्व में हमारे देश में गोचर भूमि की प्रचूरता थी। राज वर्ग तथा प्रजा वर्ग दोनों की ओर से गोचरभूमि छोड़ी जाती थी। पुण्यलाभ की दृष्टि से धर्मशाला, पाठशाला, कूप और तालाब आदि बनवाने की प्रथा की भांति गोचर भूमि खरीदकर कृष्णार्पण करने की प्रथा भी प्राचीन काल में थी। कई स्थानों पर आज भी वे गोचर भूमियां विद्यमान हैं, और उनके दानपत्रों में स्पष्ट अंकित है कि इस गोचर भूमि को नष्ट करने वाले यावच्चन्द्र दिवाकर नरकवास करेंगे। परन्तु वर्तमान युग में जमीन की कीमत निरंतर बढ़ते जाने से न तो सरकार और न ही समाज गोचर भूमि छोडऩे को तैयार है, जो पूर्व की घोषित गोचर भूमि है, उस पर अवैध कब्जे हो चुके हैं। परिणामस्वरूप गाय और बैल सड़कों पर लावारिस घूमते दिखाई दे रहे हैं। लावारिस पशुधन की बढ़ती संख्या के कारण और कई समस्याएं पैदा हो रही हैं। सरकार को चाहिए कि अवैध कब्जे से गोचर भूमि को जल्द छुड़ाए तभी लावारिस पशुधन की समस्या का कोई स्थाई हल निकल सकेगा।
उल्लेखनीय है कि भारत में अंग्रेजी शासन के पूर्व तक प्रत्येक गांव में पशुओं के चरने के लिए चरागाह थे। कई स्थानों पर तो गांव की चारों दिशाओं में चरागाह होते थे। गोवंश से भारत के विकास और समृद्धि को देखकर षड्यंत्र अर्थात साजिश के तहत ब्रिटिश शासकों ने भारतीय गोवंश के नाश और लाखों की संख्या में उपलब्ध उनकी जीवनरेखा चरागाहों को नष्ट करने के लिए उन चारागाहों को वीरान, कमजोर, व्यर्थ, निकम्मे बताकर उन चारागाह स्थलों पर शिक्षण संस्थान, सरकारी कार्यालय आदि निर्माण का सहारा लेकर प्रत्येक गांवों में उपलब्ध पशुओं के चरने की गोचर भूमि को समाप्त कर दिया। लोगों के मुंह को चुप करने के लिए कहीं- कहीं सरकारी नौकरी का लालच देकर आधुनिक वैज्ञानिक कृषि अथवा पशु शास्त्र पढ़ाया जाने लगा। जिनकी नसों में पशु-शास्त्र का खून भी नहीं था, ऐसे विद्यार्थियों को दाखिल करके उन्हें गलत शिक्षण देकर तैयार किया गया। पश्चिमी देशों की आबोहवा, रीति-रिवाज इत्यादि के अनुसार बनाई गई पशुपालन की यह शिक्षा हमारे देश के लिये गलत, अव्यवहारिक और भारतीय संस्कृति के प्रतिकूल था। अंग्रेजों के अनुसार चरनी में पशुओं को छूट से घूमने देने पर उनके पैर के नीचे जमीन रौंदे जाने से बिगड़ जाती है, और उनका मल-मूत्र घास पर गिरने से घास खराब हो जाती है।
इसलिए चरागाहों में पशुओं को स्वतंत्र घूमने नहीं देना चाहिये, अपितु घास काटकर उसकी गठरी बनाकर रखना चाहिये और जरूरत के अनुसार पशुओं को खाने देना चाहिये, जबकि सच्चाई तो यह है कि चरनी के दौरान पशुओं के पैरों तले की जमीन नरम बन जाती है, जिससे घास आसानी से उगती है। मिट्टी नरम बने व अनाज उस नरम जमीन में आसानी से उग सके, इसीलिए तो खेत हल द्वारा जोते जाते हैं। अंग्रेजों ने पशुओं को प्रतिदिन दी जाने वाली घास की मात्रा का पैमाना भी निश्चित किया। इस नई पशुशास्त्र से शिक्षित भारतीय शिष्य सरकारी नौकरी में लगते ही अपने अधिकार क्षेत्र के चरागाह बंद करते गये, घास काटते गये व उन्हें बेचते गये। ब्रिटिश शासकों ने पहले हमारे देश से लाखों सूअरों को लावारिस बताकर यूरोप ले गए व वहां उनसे लाखों रुपये कमाये, हमारे जंगल काटकर उसकी इमारती लकड़ी बेचकर अरबों रुपये लूट ले गये और अंत में घास काटकर उसकी बिक्री से भी काफी पैसे लूटे गये।अंग्रेज आये ही थे लूट के लिए और आकर अर्थ लूट खसोट और धर्म संस्कृति नष्ट भ्रष्ट कर चले गये।
चारागाहों में पशुओं के स्वतंत्र घूमने- फिरने में अंकुश लगाये जाने पर जमीन कठोर बन जाती है, और धीरे- धीरे वह इतनी कठोर हो जाती है कि उसमे घास उग ही नहीं पाती, और अगर कहीं उग भी जाती है तो उसकी बढ़वार उतनी नहीं हो पाती, जितनी होनी चाहिए। भूमि उर्वर होनी चाहिए। खेती, जंगल अथवा चारागाह सभी जमीन को हमेशा पोषण युक्त होना चाहिए। कृषक बेहतर फसलोपज के लिए खेतों में पशुओं के मल-मूत्र की खाद डालने की व्यवस्था करते हैं। जंगलों में ऐसी कोई व्यवस्था न देख खाद डालने की व्यवस्था तो प्रकृति ने ही कर दी है। जंगल में जमीन पर गिरे पेड़ों के सूखे पत्तों पर नानाविध पक्षियों, वन्य पशुओं व जानवरों के मल-मूत्र, बिष्ठा गिरने के मिश्रण से उत्पन्न उत्तम खाद जंगल की जमीन को उपजाऊ व रसदार बनाती है। उसी प्रकार पशुओं के चरागाह में स्वतंत्र विचरण से उनके पैरों तले रूंदने के कारण नरम बनी जमीन पर उनका मल-मूत्र गिरने से उत्तम खाद बनती है, जो चारागाह की जमीन को उर्वरक बनाती है।
ऐसी जमीन पर ही 10-12 फुट ऊंची घास उग सकती है।चारागाह में पशुओं के चरने का एक और लाभ, चरे गये घास पर उनके मुंह से गिरे लार से घास के पुनः बढ़ने के रूप में भी प्राप्त होता है, जो हसुयें अथवा डराती से काटे जाने की स्थिति में प्राप्त नहीं होता। पशुओं के मुंह की लार में भी एक विशेष गुण होता है, जमीन पर उगी हुई पशुओं के द्वारा चरे अथवा काटे गये घास के शेष बचे भाग पर गिरा अथवा लगा पशु लार से घास में पुनः नये अंकुर फूट पड़ते हैं। लेकिन दरांती के द्वारा काटी गई घास में नये अंकुर नहीं फूटते। पशुओं को चरागाहों में जाने नहीं दिए जाने से उनके मुंह की लार घास पर नहीं गिरने, जमीन रूंदकर नरम नहीं होने से घास के मूल में जकडक़र दिन-प्रतिदिन कठोर होती चली जाती है, मल-मूत्र की खाद न मिलने से अनुर्वर हो रसहीन बन जाती है।
कृषि उत्पादों पर आश्रित उद्योग प्रधान देश भी पशुओं के परिपालन की ओर ध्यान देते हैं, और यथासम्भव उतनी ज्यादा जमीन में चरागाह रखते हैं, जितनी की पशुओं के लिए आवश्यकता होती है। विदेशियों को चरागाहों और पशुओं का महत्व समझ में आने के कारण ही तो ब्रिटेन वासी स्वयं के लिए अनाज और जापानी रूई आयात करके भी चरागाहों को सुरक्षित रखते हैं। इंग्लैंड प्रत्येक पशु के लिए औसतन 3.5 एकड़ जमीन चरने के लिए अलग रखता है। जर्मनी 8 एकड़, जापान 6.7 एकड़ और अमेरिका हर पशु के लिए औसतन 12 एकड़ जमीन चरनी के लिए अलग रखता है। इसकी तुलना में भारत में एक पशु के लिए चराऊ जमीन 1920 में 0.78 एकड़ अर्थात अंदाजन पौने एकड़ थी। अब यह संख्या घटकर प्रति पशु 0.09 एकड़ हो गई है। अर्थात अमेरिका में 12 एकड़ पर 1 पशु चरता है, जबकि अपने यहां एक एकड़ पर 11 पशु चरते हैं । पिछली सदी के सतर के दशक में सिर्फ एक ही वर्ष में अपने यहां साढे सात लाख एकड़ जमीन पर के चरागाहों का नाश कर दिया गया। 1968 में चराऊ जमीने 3 करोड़ 32 लाख 50 हजार एकड़ जमीन पर थी, जो 1969 में घटकर 3 करोड़ 25 लाख एकड़ हो गई। पांच वर्षों में अर्थात 1974 में वे और अढ़ाई लाख एकड़ कम होकर 3 करोड़ 22 लाख 50 हजार एकड़ हो गई। इस तरह सिर्फ छह वर्षों में 10 लाख एकड़ चराऊ जमीनों का नाश किया गया। फिर भी किसानों का विकास करने की डींग हांकने वाले, गरीबों को रोजी दिलाने का वादा करने वाले, विशेषकर किसानों, पशुपालकों व गांव के कारीगरों के वोट से चुनाव जीतने वाले देश के किसी विधानसभा या लोकसभा के सदस्य ने उसका न तो विरोध किया है, न ही उसके प्रति चिन्ता व्यक्त की है। सन 1860 तक हमारे देश के चरागाहों अथवा चरनी में उगे ऊँचे घास में हाथ में भाला लिया हुआ घुड़सवार घास में ढंक जाता था, जिसे दूर से कोई भी देख नहीं सकता था। ब्रिटिश शासकों की रहनुमाई के बाद हमारे देश के कर्णधारों के युग में भी हमारे चारागाह अर्थात चराऊ जमीनों में घास की जगह धूल व कंकड़ उग रहे हैं। बारिश के मौसम में मुश्किल से 2 फुट ऊंची घास होती है, जिसे बारिश जाने के पहले ही पशु खा भी जाते हैं, बाद में इनके चरने के लिए कुछ नही बचता। पूर्व में चारागाह नदी, तालाब, आदि के किनारे होते थे, जिससे पशुओं को खाना -पीना एक साथ मिल जाया करता था, जहां नदी, तालाब नहीं होते थे, वहां कुएं अथवा बावड़ी बनाये जाते थे, जिसमें पशुओं के पीने के लिए व्यवस्था होती थी। नदी या तालाबों के किनारे चरनी होने से वर्षाकाल में पानी से जमीन की उपजाऊ मिट्टी बहकर नदी में न जाकर चरागाहों में ही रह जाती। पानी बह जाने पर मिट्टी घास के मूल में ठहर जाती थी। नदी किनारे के ढलान और पर्वतों की धार पर भी उगे घास से भी नदी के किनारे और पर्वतों के धार की मिट्टी भी बहकर नहीं जा पाती थी। इससे घास की आपूर्ति भी निरंतर बनी रहती थी। बूढ़े पशु और छोटे बछड़े चरने नहीं जा सकते। उनके लिए बेरोकटोक लोग घास काटकर ले जाते थे। वे अपने पशुओं को मुफ्त में खिला सकते थे। तदुपरांत धनाढ्य व श्रीमंतो के पशुओं के लिए घास बेचकर थोड़ी कमाई भी करते थे। चराऊ जमीनें दो तरह की थीं- खुली व राज्य द्वारा रक्षित। राजज्ञ अपनी प्रजा के पशुओं की देखभाल करने में अपना हित समझते थे। उनके रक्षित चरागाहों में कोई अपने पशु बेवक्त चरा न जाये, इसके लिए चौकीदार रखते थे। खुले चरागाहों में गांव के तमाम पशु बगैर रोकटोक के रात-दिन चरते रहते और जब इन खुले चरागाहों में घास खत्म हो जाती, तो राज्य के रक्षित चरागाह खोल दिये जाते। उस वक्त तमाम पशु बेरोकटोक उसमें मुफ्त चर सकते थे। बारिश आने तक अगर चरागाह की सारी घास पशु खा न लेते तो बची हुई घास काटकर राज्य के द्वारा ढेर के रूप में संभाली जाती और अकाल के समय पशुओं को खिलाने के लिये बाहर निकाली जाती थी।
पिछले वर्ष मत्स्य पालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय भारत सरकार के द्वारा जारी 20वीं पशुधन गणना रिपोर्ट -2018 के अनुसार देश में कुल पशुधन आबादी 535.78 मिलियन है, जिसमें पशुधन गणना- 2012 की तुलना में 4.6% की वृद्धि हुई है। 2012 में जारी आंकड़ों के अनुसार भारत में विभिन्न प्रजाति के पशुओं की आबादी 512.2 मिलियन था। देश में कुल मवेशियों की संख्या में 0.8% की वृद्धि हुई है। यह वृद्धि मुख्य रूप से वर्ण शंकर मवेशियों और स्वदेशी मादा मवेशियों की आबादी में तेज़ी से वृद्धि का परिणाम है। प्रत्येक वर्ष गर्मी के बढ़ने के साथ ही मनुष्य के साथ पशु भी परेशान हो उठते हैं। बेजुबान पशुओं के समक्ष पेयजल और खाद्य हेतु हरी घास अथवा चारे का संकट खड़ा हो जाता है। ऐसा प्रायः प्रतिवर्ष और देश के अधिकांश राज्यों के प्रत्येक गांवों में हो रहा है। पूर्व में प्रत्येक गाँवों में उपलब्ध चारागाह अब धीरे- धीरे विलुप्त हो चले हैं, सरकारी नक्शों से गोचर भूमि तीव्रगति से गायब हो रही है। जिसके कारण पशुपालकों को पशुओं का पेट भरने के लिए पशुओं को लेकर भटकना पड़ रहा है। सूखे चारे की कमी का संकट भी बढ़ता जा रहा है। एक अनुमान के अनुसार देश के दस में से नौ पशुओं को सूखे कचरे पर गुजारा करना पड़ रहा है। मवेशियों को पर्याप्त चारा न मिल पाने के कारण दुग्ध उत्पादन में कमी आ रही है और पशुपालकों के लिए पशुपालन घाटे का सौदा साबित हो रहा है। जिस कारण पशुपालक मजदूरी करने के लिए विवश हो रहे हैं। देश में फिलहाल लगभग एक करोड़ तीस लाख हेक्टेयर भूमि ही स्थायी चरागाह के लिए वर्गीकृत है। जो अत्यल्प है और उसकी हालत भी अच्छी नहीं है। इसलिए बंजर, परती तथा खेती के अयोग्य जमीन से प्राप्त होने वाली घास को ही उसमें से खींचकर पशु खाते हैं।
हमारे ग्राम्य जीवन में पशुधन की अहम भूमिका है। गांवों में आज भी ईंधन, बोझा ढोने और खींचने का मुख्य साधन पशुधन ही है। वहीं खाद्य पदार्थ और गांवों के उद्योगों का कच्चा माल बड़ी मात्रा में इनसे मिलता है। ध्यातव्य है कि हमारे देश का किसान केवल अन्न का उत्पादक नहीं है, उसके नित्य जीवन में खेती और पशुपालन एक दूसरे के पूरक हैं। लेकिन पानी और चारे की कमी के कारण इन जानवरों के सामने संकट खड़ा हो गया है। गर्मी के मौसम में तो और भी हरे चारे का संकट खड़ा हो जाता है। पूर्व में अधिकांश राजस्व ग्रामों में चारागाह की जमीन सुरक्षित थी, जो अब कम हो गये हैं, और जो हैं भी वे प्रत्येक गांव में उपस्थित दबंगों के कब्जे में हैं अथवा ग्रामसभा के नक्शे से ही राजस्वकर्मियों के मिलीभगत से गायब कर दिए गए हैं। देश के सभी राज्यों में विगत दशकों में चरागाह का क्षेत्रफल तेजी से घटा है। सिकुड़ते चरागाह जानवरों का पेट भरने में नाकाम साबित हो रहे हैं। दबंगों के कब्जे से चरागाह को मुक्त कराना प्रशासन के लिए बड़ी चुनौती है। प्रधान और लेखपालों की मिली भगत से बड़े सुनियोजित ढंग से गांवों के चरागाह को खत्म किया जा रहा है। सूखे चारे की कमी का हाल भी भयंकर है। सूखे और हरे दोनों तरह के चारे की कमी लगातार बनी हुई है।
राष्ट्रीय कृषि आयोग की 1976 की एक रिपोर्ट के मुताबिक 1973 में सूखे चारे की कमी 11 प्रतिशत थी और हरे चारे की 38 प्रतिशत। सिर्फ मिजोरम एक ऐसा राज्य है जहां पर्याप्त सूखा चारा है। पंजाब, हरियाणा, गुजरात और महाराष्ट्र के कुछ जिले हैं जहां हरा चारा पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। इन राज्यों की तुलना में देश के शेष प्रदेश बहुत पीछे हैं। किसान अधिकांश मवेशियों को फसलों के डंठल वगैरह खिलाने को मजबूर हैं। शेष को बंजर जमीन में, नदियों और सड़कों के किनारे, खाली पड़ी भूमि और बिरले होते जा रहे जंगलों में अपना नसीब आजमाने के लिए छोड़ दिया जाता है। चरागाह को मुक्त कराने के लिए कोई गम्भीर प्रयास अब तक नहीं हुए, और जो हुए भी हैं, वे सिर्फ खानापूर्ति तक ही सीमित होकर रह जाते हैं। चरागाहों का क्षेत्रफल कम होने के कारण पशुओं की उत्पादकता घटती है और पशुओं पर ही जिनकी जीविका निर्भर है, उनकी आर्थिक स्थिति ही नहीं, पूरी जीवनशैली खतरे में आ जाती है। इसके चलते पशुपालक मजदूरी करने के लिए विवश होते हैं। देश की राष्ट्रीय आय में पशुपालन का प्रत्यक्ष योगदान कोई 6 प्रतिशत है, पर परोक्ष योगदान इससे कहीं ज्यादा है। खाद देने वाले और भार ढोने वाले के रूप में ये पशुधन देश के लाखों-करोड़ों छोटे किसानों के लिए ऑक्सीजन के समान है। गन्ना पेरने या तेलघानी चलाने जैसे कई उद्योग पशुधन पर ही निर्भर हैं। इसके अतिरिक्त इस देश में 6 प्रतिशत बंजारे भी हैं जिनका गुजारा पशुपालन से चलता है।
इसमें कोई शक नहीं कि बैल और भैंस से चलने वाली बैलगाड़ियों के बिना देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था का पहिया ही रूक जाएगा। चरागाहों को सुरक्षित व सरंक्षित रखने के लिए प्रशासनिक स्तर पर जिम्मेदारी और जबावदेही सुनिश्चित, चरागाहों की नए सिरे से गिनती और हदबंदी कराई जाए। चरागाह खत्म होने से पर्यावरण पर नकारात्मक असर पड़ता है। पारिस्थितिकी संतुलन पर भी बुरे प्रभाव पड़ते हैं। इसलिए चरागाहों के रखरखाव की ठोस योजना होनी चाहिए। चरागाहों को विकसित और सरंक्षित करने के लिए चारागाह भूमि विकास और प्रबंधन शुरू किया जाय। सामाजिक संस्था और किसानों को मिलाकर निजी चरागाह तैयार किया जाय । बरसात के मौसम में चरागाहों को पुर्निजीवित और हरा-भरा बनाने के लिए व्यापक स्तर पर प्रत्येक प्रदेश में अभियान चलाया जाए। मानसून में ही इस अभियान को शुरू किया जा सकता है। स्टाइलो, अंजन, दीनानाथ, धामन आदि घास उगाने से चारे की समस्या को काफी हद तक कम किया जा सकता है। नेपियर एवं गिनी घास से भी चारे को संकट कम करने में मदद मिल सकती है। एक हेक्टेयर भूमि पर उगी घास से 15 पशुओं को वर्ष भर के लिए चारा मिल सकता है। चरागाहों का रकबा कम होने से पशुओं की उत्पादकता तो घटती ही है बल्कि पशुपालकों की आर्थिक स्थिति पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। कई समितियों ने गोसंरक्षण और गो रक्षा के लिए केंद्र सरकार को राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय गोवंश विकास आयोग या राष्ट्रीय गोसेवा आयोग की स्थापना करने, चारागाह की सुचारु रूप से व्यवस्था करने, चारा उत्पादन के लिए-भूमि संरक्षित तथा विकसित करने, ग्राम स्तर पर कृषकों के पशुओं के लिए चारागाह उपलब्ध कराने, गोवंशीय पशुओं को चरने तथा घास के लिए अधिनियम बनाने, देश की सभी पंचायतों और नगर निगमों को एक सूचना भेजकर कस्बों एवं नगरीय इलाकों में गोपालन कानून में संशोधन कराते हुए प्रत्येक गृह मालिक को गाय व उसके संतति को रखने की अनुमति दिए जाने आदि कई संस्तुतियां की हैं, लेकिन इन पर अमल आज तक किसी सरकार ने नहीं किया। लेकिन गोधन व गोचरभूमि के महत्त्व को समझते हुए सरकार व समाज को तत्काल ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है।