पचहत्तर साल का भारत

क्या 15 अगस्त 1947 के दिन ऐसे आजाद भारत की कल्पना थी? क्या ऐसे ही भारत बनाने के लिए हमने अंग्रेजों से आजादी पाई थी? आजादी के बाद भारत में कैसे नागरिक बनने थे और बने क्या है? व्यवस्था कैसी बननी थी और बनी क्या है? राजनीति होनी क्या थी और हुई क्या है? बुद्धी बननी क्या थी और बनी क्या है? इसी क्रम में सोचे कि भले मानुष पंडित नेहरू ने भारतीय नागरिक कैसे बनाने चाहे और वे बने कैसे? ऐसे ही छप्पन इंची छाती के नरेंद्र मोदी और संघ परिवार ने अपने हिंदू भारत के आदर्श नागरिक के सपने में गढ़ना क्या चाहा और बन क्या रहा है?

तो दोष है नींव का, उस घुट्टी का, उन संस्कारों और सत्ता चरित्र का जिसने मनुष्यों की रैवड बना डाली है। देश को वह बाडा बना डाला है जिसमें हिंदू ही सर्वाधिक रोता-पीटता है!

मोटा मोटी अपना मानना है सारी गडबड राजनीति और राज व्यवस्था के विकलांग मष्तिष्क से है यह विकलांग मष्तिष्क सिर्फ सत्ता के ‘स्व’ व तंत्र में केंद्रीत है। सत्ता और तंत्र का भारत तानाबाना अंग्रेजों द्वारा लोगों को गुलाम बनाने के मॉडल की जस की तस अनुकृति है। इसी से गांव-गांव सत्ता का दबदबा बना है। भारत की सत्ता और उसके तंत्र को यह मतलब नहीं है कि बतौर सभ्यता-संस्कृति और धर्म के हिंदुओं का गौरव बने, विकास का प्रारब्ध बने। संविधान में कहने को सबकुछ है लेकिन बिना उस प्राण-प्रतिष्ठा से जिससे लोगों का चरित्र बने, जीवन की जिंदादिली बने। नागरिक बेधड़क-कॉफिडेंस से यह पूछ सकें, जवाब तलब कर सकें कि मेरी पढ़ाई, मेरे रोजगार, मेरी चिकित्सा, मेरी ज्ञान-बुद्धी-स्वतंत्रता के वे क्वालिटी अवसर क्यों नहीं है जैसा हर सभ्य देश-समाज में नागरिकों को प्राप्त होता है! मैं भी बाकि सभ्य संस्कृतियों की तरह वे मूल्य, वे संस्कार, वह चरित्र, वे आदर्श पाते हुए क्यों नहीं हूं जिससे मेरी मातृभूमि का सफर भी धर्म-सभ्यता-संस्कृति का गौरव बनवाते हुए हो।

बडी-बडी बाते! लेकिन ऐसी ही बातों से मनुष्य होना प्रमाणित होता है। आजादी के वक्त और आज भी भारत का सामान्य जागरूक नागरिक (हिंदू-मुसलमान सब) यही सोचते हुए था और है कि वह सहज जीवन जीये। रोजमर्रा की मुश्किलों से आजाद हो। मेरा घर-परिवार चैन पाता हुआ हो, वह बनता हुआ हो। सही है कि इसी ख्याल में पंडित नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक के सभी 16 प्रधानमंत्रियों ने मोटा मोटी संविधान-व्यवस्था और राजनीति के पारस पत्थर से भारत को सोना बनाना चाहा। लेकिन नतीजा उलटा? हिंदू और भारत का मानस उलटे जड़ बुद्धी में पत्थर बना है। वह अविद्या, मूर्खता के भीतरवास में ठोकरे खाते व भटकते हुए है। मतलब अंधे द्वारा अंधों को रास्ता दिखाने के सफर का प्रमाण!

इसलिए समझे, गांठ बांधे कि संविधान, व्यवस्था और नेतृत्व के कथित पारस पत्थर की खोट है जिससे पचहत्तर साल की आजादी में लोग जड़ बुद्धी में अंधा सफर करते हुए है।

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