राष्ट्रवाद पर भाजपा का एकाधिकार!
यह कहने के बड़े खतरे हैं कि भाजपा ने राष्ट्रवाद पर एकाधिकार बना लिया है। कई लोग समझाने आ जाएंगे कि भाजपा का राष्ट्रवाद असली नहीं है। असली राष्ट्रवाद अलग चीज है और भाजपा जो कर रही है वह चुनावी राष्ट्रवाद है। हो सकता है कि उनकी बात सही हो। लेकिन बहस इस बात पर नहीं है। बहस इस बात पर है कि लोकप्रिय विमर्श में राष्ट्रवाद को जिस रूप में देखा जाता है उस रूप पर भाजपा ने एकाधिकार बना लिया है और उसे निकट भविष्य में तोड़ पाना मुश्किल लग रहा है। उस एकाधिकार को किसी स्तर पर सिर्फ अरविंद केजरीवाल चुनौती दे रहे हैं लेकिन उनकी चुनौती भी प्रतिक्रियात्मक है। वे स्वतंत्र रूप से कोई विमर्श नहीं खड़ा कर पा रहे हैं, बल्कि भाजपा जो एजेंडा तय कर रही है उस पर ज्यादा सक्रिय होकर अमल कर रहे हैं। इससे वे भाजपा का विकल्प नहीं, बल्कि भाजपा की फोटोकॉपी बन कर उभर रहे हैं- एक दयनीय प्रतिलिपि!
इसे ‘हर घर तिरंगा’ अभियान में देखा जा सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आजादी के अमृत महोत्सव के मौके पर देश भर में आयोजित हो रहे कार्यक्रमों की कड़ी में ‘हर घर तिरंगा’ अभियान की घोषणा की। जैसे जैसे स्वतंत्रता दिवस नजदीक आया है वैसे वैसे इसके प्रति आकर्षण और लगाव बढ़ता गया है। आज पूरे देश में तिरंगा लगाने की होड़ मची है। जो लोग सोशल मीडिया पर जरा सा भी सक्रिय हैं उनको पता है कि कैसे फेसबुक से लेकर ट्विटर, इंस्टाग्राम और व्हाट्सऐप पर करोड़ों लोगों की टाइमलाइन तिरंगामय हुई है। करोड़ों लोगों ने तिरंगे के साथ अपनी डीपी लगाई है और तिरंगे के साथ फोटो शेयर की है। यह प्रधानमंत्री मोदी की अपील का असर है कि करोड़ों लोगों की सोशल मीडिया प्रोफाइल पर तिरंगा लगा हुआ है। अब इसका मजाक उड़ाते रहिए कि मोदी ने पहले ताली-थाली बजवाई, फिर दीये जलवाए, फूल बरसवाए और अब डीपी बदलवा रहे हैं। ताली-थाली बजवाने और दीये जलवाने से लेकर डीपी बदलवाने तक का अभियान अगर सफल हुआ तो सिर्फ इसलिए नहीं हुआ कि सरकार ने ऐसा कहा है या सरकारी मशीनरी इसमें लगी है। वह आम लोगों की भागीदारी के कारण हुआ।
‘हर घर तिरंगा’ अभियान एक जन आंदोलन में बदला है तभी दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल बहती गंगा में हाथ धोने के लिए कूद पड़े। उन्होंने दिल्ली में 25 लाख तिरंगा बंटवाने की ऐलान किया। उन्होंने एक कदम आगे बढ़ कर दिल्ली के लोगों से कहा कि 14 अगस्त की शाम को पांच बजे लोग तिरंगा हाथ में लेकर राष्ट्रगान गाएं। इस अभियान को सफल बनाने में केजरीवाल ने अपने को झोंका है। पूरी मशीनरी इस काम में लगी है और दुनिया भर का विज्ञापन हो रहा है। इसमें मौलिकता कुछ नहीं है। सिर्फ ऐसा लग रहा है कि भाजपा के तय किए एजेंडे पर चल कर केजरीवाल खुद को भाजपा से बड़ा राष्ट्रवादी दिखाने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन इससे वे भाजपा के एकाधिकार को चुनौती नहीं दे पा रहे हैं।
कांग्रेस ने इस विमर्श को एक दूसरी दिशा देने का प्रयास किया। उसके नेताओं ने पंडित जवाहर लाल नेहरू की तिरंगे वाली फोटो शेयर की और अपनी सोशल मीडिया प्रोफाइल में लगाया। इसके जरिए कांग्रेस ने यह विमर्श खड़ा करने का प्रयास किया कि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ या भाजपा के पुराने नेता तिरंगे को सम्मान नहीं देते थे इसलिए तिरंगे के साथ उनकी कोई फोटो नहीं है। यह बात काफी हद तक सकी है। लेकिन इससे तिरंगे का विमर्श बदला नहीं है, बल्कि और मजबूत हुआ है। सोशल मीडिया पर सक्रिय लोग इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दे रहे हैं कि पहले किसने क्या किया। उनको लग रहा है कि मोदी ने भारत की शान तिरंगे को हर घर में पहुंचाने का बड़ा काम किया है। अब तिरंगा मोदी के नाम से जुड़ गया है और ध्यान रहे राष्ट्रगान के साथ राष्ट्रीय ध्वज ही राष्ट्रवाद का सबसे बड़ा प्रतीक है। सो, कांग्रेस जो कर रही है उससे लग रहा है कि वह इस मजबूरी में इस अभियान का हिस्सा बनी है कि कहीं उसको राष्ट्रविरोधी न ठहरा दिया जाए या वह जनभावना से कटी हुई न दिखे।
नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रवाद के तीन प्रतीकों का बहुत सहजता के साथ इस्तेमाल किया और राष्ट्रवाद पर भाजपा का एकाधिकार बनाया। भले अदालत ने यह फैसला दिया था कि सिनेमा हॉल में राष्ट्रगान के समय खड़ा होना अनिवार्य होगा लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने इसे जन आंदोलन में बदला। आज अगर देश में भारत माता की जय बोलने का चलन बढ़ा या है अभिवादन के लिए वंदेमातरम कहा जाने लगा है तो इसका श्रेय नरेंद्र मोदी की अपील को ही जाता है। उन्होंने राष्ट्रगान के लिए, राष्ट्रीय ध्वज के लिए और भारत माता की जय बोलने के लिए कई बार लोगों से अपील की है। उनकी अपील बेहद कारगर रही है। देश का आम नागरिक मानता है कि यह अच्छी बात है। विपक्ष के नेताओं से गलती यह हो गई कि उन्होंने मोदी की इस तरह की अपील पर हर बार कोई न कोई सवाल उठाया। जिस तरह नब्बे के दशक में ‘जय श्रीराम’ के नारे का विरोध हुआ उसी तरह ‘भारत माता की जय’ बोलने का भी विरोध किया। राष्ट्रगान पर खड़े होने की अनिवार्यता पर भी सवाल उठाया गया और अब तिरंगा अभियान को लेकर भी अलग विमर्श बनाया जा रहा है। पिछले दिनों मोदी ने नए संसद भवन की छत पर अशोक स्तंभ का विशाल राष्ट्रीय प्रतीक स्थापित कराया तो उसके आकार-प्रकार और रूप-रंग को लेकर सवाल उठे। सवाल भले जायज हों लेकिन अंत में उससे भी राष्ट्रवाद का ही मैसेज बना।
असल में मोदी हर बार विपक्षी पार्टियों को खास कर कांग्रेस को दुविधा में डाल देते हैं। वह राष्ट्रवाद के प्रतीकों को लेकर शुरू किए जाने वाले अभियान का न तो विरोध कर पाती है और न खुल कर समर्थन कर पाती है। विरोध करने पर राष्ट्रविरोधी ठहराए जाने की चिंता है तो समर्थन करने पर मोदी के एजेंडे के साथ चलने का मैसेज जाने की चिंता है। सो, हर बार वह मोदी के एजेंडे में कुछ ट्विस्ट लाने का प्रयास करती है लेकिन कामयाबी नहीं मिल पाती है और फायदा भाजपा को हो जाता है। कांग्रेस की इसी दुविधा की वजह से या कांग्रेस के पास अपना कोई मूल एजेंडा नहीं होने की वजह से राष्ट्रवाद की विचारधारा को लेकर भाजप