आदिवासी राष्ट्रपति से क्या आदिवासियों का कल्याण होगा?
कुछ दिन पूर्व संसद भवन में एनडीए सांसदों से बातचीत करते हुए द्रौपदी मुर्मु ने कहा था कि मुझे राष्ट्रपति पद के लिए निर्वाचित करने से देश के करोड़ों आदिवासियों को प्रसन्नता हुई है। संदेह नहीं है कि एक आदिवासी महिला, एक दलित नेता का राष्ट्रपति बनना गौरव वाली बात है। पर सवाल है कि इन निर्वाचनों से क्या दलितों, आदिवासियों के जीवन में कोई बदलाव आया है? द्रौपदी मुर्मू ने झारखंड की राज्यपाल रहते हुए न्यायाधीशों की एक बैठक में य कहा था कि अभी भी सामाजिक न्याय सामान्यों की पहुँच से दूर है, विशेषकर आदिवासियों के साथ उचित न्याय नहीं हुआ है। अब चूंकि वे राष्ट्रपति बन चुकी हैं और संविधान के दिशानिर्देशों का पालन करते हुए दायित्व निर्वाह की बात कह रही हैं तो वे आगे क्या करेगी?
तेलुगु वीर अल्लूरि सीतारामराजु आदिवासियों के साहस के प्रतीक है। हाल में आंध्र प्रदेश में उनकी मूर्ति अनावरण पर प्रधानमंत्री ने इसका उल्लेख किया था। उन्होंने कहा कि आदिवासियों के अधिकारो की रक्षा करने के लिए सरकार सभी के तरह कदम उठा रही है। पर कथनी और करनी में बड़ा अंतर होता है। आदिवासियों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए संविधान में कई प्रावधान हैं, जिनका आए दिन उल्लंघन हो रहा है, लेकिन इस पर कोई बड़ी कार्रवाई नहीं हो रही है। अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत विस्तार कानून (पेसा), वन संरक्षण कानून, भू-अधिग्रहण कानून आदि की अनदेखी आम हैं। खदान, खनिज संसाधन कानून के लिए केंद्र द्वारा प्रतिपादित संशोधनों से न केवल उक्त कानूनों का बेमतलब होना हैं, बल्कि राष्ट्रीय हितों को ताक पर रखकर निजी खदान कंपनियों के मालिकों को लाभ पहुँचाने के किस्से आम हैं। भारत के पूर्व सचिव ईएएस शर्मा ने हाल ही में कैबिनेट सचिव राजीव गौबा को हाल में एक पत्र लिखकर इसकी जानकारी दी। पिछले महीने 28 तारीख को सूचित वन संरक्षण प्रावधानों का उल्लंघन करते हुए परियोजना की अनुमति के विषय में ग्रामसभाओं की भागीदारी को दरकिनार करने को लेकर विपक्षी दलों की आलोचना हुई है। सभाओं के बिना इतने बड़े हेर-फेर करना केंद्र सरकार के दायित्वों से बचने का प्रतीक है। कानून से कार्पोरेट क्षेत्र द्वारा वनों के अतिक्रमण का हौसला बना हुआ है। मनमानी हो रही है।
आदिवासियों की जमीन और जंगल के साथ ने केवल ज्यादती है बल्कि वे कई तरह के शोषणों का शिकार हो रहे हैं। पिछले दस वर्षों में आदिवासियों के साथ कोई 80 हजार अपराध हुए हैं। वर्ष 2020 में 8,272 अपराध होने की पुष्टि स्वयं राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरों में है। जो मामले दर्ज नहीं हुए हैं, उनके बारे में कहना ही क्या। मध्यप्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ में माओवादी समस्या में आदिवासी दोहरी मार झेलते हुए है। अनेक राज्यों में बेदखल है। जबरन घर निकाला है। भूअधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले हजारों आदिवासी हैं। आदिवासियों में जहाँ 41 प्रतिशत निरक्षर हैं, वहीं 41 प्रतिशत गरीबी रेखा के नीचे जीवन जीने को मजबूर हैं। समाजशास्त्री शिरीष भंडारकर ने बताया है कि आदिवासियों में संक्रामक रोगों, पौष्टिकता की कमी के चलते कुपोषण के शिकार होने वालों की संख्या सर्वाधिक है।
हाल में जयपुर में संपन्न न्यायसेवा अथारिटी की सभा में केंद्रीय मंत्री किरण रिजिजु ने कहा कि हमारे देश में पूछताछ की स्टेज के 3.5 लाख केस हैं। जिनमें 73 प्रतिशत मामले दलित, आदिवासी और पिछड़ा वर्ग से संबंधित है। देखा जाए तो हमारे देश में आपराधिक न्याय व्यवस्था आम आदमी के खिलाफ और उसका शोषण करने वाली है। न्याय सेवा अथारिटी की बैठक में उच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश एनवी रमणा ने भी यही बात कही थी। आपराधाकि न्याय व्यवस्था अनेक चुनौतियों का सामना कर रही है। बिना सोचे-समझे बंदी बनाना, बेल प्राप्त में कठिनाइयों का सामना करना प्रमुख हैं। उन्होंने इस अवसर पर महात्मा गांधी की प्रजातंत्र के बारे में दी गई परिभाषा का उल्लेख करते हुए कहा कि प्रजातंत्र का अर्थ बलवानों को जितने अवसर दिए जाते हैं उतने ही अवसर बलहीनों को दिए जाने चाहिए। प्रधान न्यायाधीन रमणा ने कहा कि जांच के दौरान जेल में जबरन बंद किए गए लोगों के लिए केवल न्याय व्यवस्था ही दोषी नहीं है। उन्होंने कहा कि आपराधिक न्याय व्यवस्था की क्षमता में वृद्धि, पुलिस को उचित प्रशिक्षण देने और जेलों के आधुनिकीकरण की नितांत आवश्यकता है। यदि न्यायाधीनों की संख्या बढ़ाए बिना, मूलभूत सुविधाएँ दिए बिना केस लंबित रहते हैं तो इसमें किसका दोष है? उन्होंने कहा कि संसदीय प्रजातंत्र का अर्थ बहुमत की सोच को थौपना नहीं है बल्कि जनता की आवाज को प्रतिबिंबित करना है। प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि दुर्भाग्यवश उचित चर्चा के बिना कानूनों का निर्माण हो रहा है।
आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक लोग जमानत राशि नहीं चुका पाने के कारण पुलिस के शिकंजे में लगातार फंसे रहते हैं? कैसे ये ऐसी विपदाओं से बचे? मुकदमे के दौरान सालों साल कारावास में सड़ने से इन वंचित लोगों को कैसे बचाया जाए? छत्तीसगढ़ में यूएपीए के अंतर्गत जेल में बंद 121 आदिवासी निरपराधी घोषित हुए पाँच साल हो गए, एक विशेष न्यायालय ने कुछ दिन पहले उन्हें मुक्त करने का आदेश दिया है। मगर उनके खोए हुए मूल्यवान पाँच वर्षों के लिए कौन जिम्मेदार है? स्वतंत्रता प्राप्ति के 75 वर्ष पश्चात एक आदिवासी महिला को राष्ट्रपति बनाना अच्चछी पहल है। द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बना कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक अच्छा राजनीतिक संदेश दिया हैं। लेकिन इसकी कामयाबी तभी है जब उनके राष्ट्रपति कार्यकाल में गरीब-अभागे आदिवासियों को सामाजिक न्याय, उनके मानवीय जीवन की गरिमा प्राप्त हो।