भाजपा सरकार, पार्टी और संघ के अन्दर असंतोष
केन्द्र सरकार और भाजपा में यों अभी प्रधानमंत्री मोदी और अमितशाह के बाद कोई है नहीं। एक से लेकर दस नंबर तक वे ही हैं। मगर उसके बाद अगर गिनती करना हो तो राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी का नाम लिया जा सकता है। दोनों वरिष्ठ मंत्री हैं। भाजपा के अध्यक्ष रहे हैं। राजनाथ सिंह तो दो बार। मगर हाल ही में दोनों ने अपने विचार जिस तरह जाहिर किए हैं उससे उनके मन में चल रही उथल पुथल का कुछ अंदाजा लगता है।
पहला तो यह कि दोनों उसी तरह असुविधापूर्ण स्थितियों में हैं जैसे 2014 से 2019 तक सुषमा स्वराज और अरुण जेटली रहे थे। सुषमा का दुःख कई बार जाहिर हो जाता था कि निर्णयात्मक मामलों में उन्हें नहीं पूछा जाता। लेकिन जेटली जहां मोदी को प्रधानमंत्री बनाने का माहौल निर्मित करने वालों में से प्रमुख थे और शुरुआती दौर में सरकार चलाने वालों में थे इसलिए बाद में उपेक्षित पड़ जाने पर भी उनका दर्द कभी शब्दों में नहीं आता था। मगर उनकी थकान में दिख जाता था। शुरु में लोकसभा से राज्यसभा भागते हुए विपक्ष को जवाब देते हुए वे उत्साह से भरे रहते थे। मगर धीरे धीरे उनके समझ में आ गया कि वे अपरिहार्य नहीं हैं। कई और लोग उन्हीं की तरह काम करने को तैयार किए जा रहे हैं। और उसमें कोई बहुत बौद्धिक योग्यता का महत्व नहीं है। सामान्य मंत्री, नेता भी मोदी का नाम लेकर वह काम करने में समर्थ हैं जिसको जेटली अपनी तीक्ष्ण बुद्धि का प्रयोग करके बहुत मेहनत से करते थे। सब धान बाईस पसेरी है! जैसे ही जेटली को समझ में आया वे शिथिल पड़ने लगे।
विंडबना है कि दोनों ही जेटली और सुषमा जल्दी चले गए। भाजपा की राजनीति में वाजपेयी और आडवानी के बाद सबसे तेज दिमाग थे। 2014 की जीत में दोनों का निर्णायक योगदान रहा था। सुषमा ने लोकसभा में विपक्ष की नेता के तौर पर और जेटली ने राज्यसभा के नेता के तौर पर 2009 से 2014 तक पूरे पांच साल यूपीए सरकार को एक दिन भी चैन से रहने नहीं दिया। बहुत आक्रामक और कोई रास्ता न देने वाली विपक्ष की भूमिका अदा की। हालांकि आज की तारीख में भाजपा को इस तरह के योग्य पड़े लिखे किसी नेता की जरूरत नहीं है। मगर बाद में कभी जरूर याद आएगा कि उन जैसे दूसरे नेता बनाने का माहौल पार्टी नहीं बना पाई। फिलहाल तो किसी भी नेता, मंत्री से किसी भी तरह का काम लिया जा सकता है। और पार्टी के लोगों से ही क्यों? मीडिया भी उसी तरह का काम कर देता है।
तो खैर स्थितियां आज भी वैसी हैं। बस पात्र बदल गए हैं। पहले जैसे जेटली सुषमा की स्थिति थी आज राजनाथ और गडकरी की हो गई है। और इसमें उनके मुंह से कुछ निकलने लगा है। क्या निकलने लगा है यह बहुत मह्त्वपूर्ण है। पहले तो आरएसएस और भाजपा का थिंक टैंक इन पर फौरन नोटिस लेता, विचार करता था। मगर अब पता नहीं कि पार्टी और संघ में कोई ध्यान देने वाले बचे भी हैं या नहीं।
आश्चर्यजनक रूप से दोनों ने अपनी बात कहने के लिए जिन दो नामों नेहरू और गांधी का उल्लेख किया उनका विरोध ही संघ और भाजपा की राजनीति का आधार रहा है। आजादी के पहले से संघ इनका विरोध करता रहा। आज भी देश की हर समस्या के लिए भाजपा के नेता इन दोनों को ही न केवल दोषी ठहराते हैं। बल्कि भक्त तो खुले आम, मंचों से, कैमरों पर गाली गलौज भी करने लगे। ऐसे में नेहरू और गांधी को सकारात्मक रूप से याद करना निश्चित ही आश्चर्यजनक है। राजनाथ सिंह ने जम्मू कश्मीर में क्या कहा? उसी जम्मू कश्मीर में नेहरू की तारीफ की जहां कुछ भी होने पर भाजपा के नेता नेहरू को ही दोषी ठहराते रहे हैं। कश्मीर का भारत में विलय 14 अगस्त 1947 तक महाराजा हरिसिंह ने नहीं किया। उल्टे पाकिस्तान के साथ एक स्टैंड स्टिल समझौता कर लिया था। जब कि नेहरू, शेख अब्दुल्ला जम्मू कश्मीर के भारत में विलय पर जोर डाल रहे थे। खैर बाद का सब इतिहास है। पाकिस्तान के कबाइलियों द्वारा आक्रमण के बाद 27 अकटूबर 1947 को महाराजा हरि सिंह को विलय पत्र पर हस्ताक्षर करना पड़े थे। मगर इस सारे इतिहास को गोल करके भाजपा कश्मीर के लिए नेहरू को दोषी ठहराती रही। नेहरू की हर बात का विरोध करने के कारण ही 1962 के चीन युद्ध जिसमें नेहरू चुप नहीं रहे थे, लड़े थे के परिणामों के लिए भी भाजपा और संघ नेहरू पर जाने क्या क्या दोष मढ़ती रहती है।
तो उसी जम्मू कश्मीर में देश के रक्षा मंत्री राजनाथ ने कहा कि 1962 के चीन युद्ध को लेकर नेहरू की नियत पर कोई शक नहीं किया जा सकता। जबकि आज तक भाजपा नेहरू की नियत पर ही शक करती रही है। उसको सच साबित करने के लिए नेहरू के कश्मीरी पंडित परिवार को मुसलमान बना देते हैं। अफवाहों में, प्रचार में, नेट पर सब जगह इतना लिखा गया है कि भक्त अब इन बातों पर आंख मूंद कर विश्वास करने लगा है। वहां यह कहना मैं एक पार्टी विशेष से आता हूं ( मतलब जो नेहरू की घोर आलोचक है) मगर नेहरू की आलोचना नहीं करुंगा बहुत कुछ राजनीतिक अर्थ देता है।
ऐसे ही गड़करी ने गांधी की तारीफ की। उनकी राजनीतिक, सामाजिक दृष्टि की। और यहां तक कहा कि अब वह राजनीति नहीं रह गई हैं। इसलिए इसे छोड़ने का मन करता है। तो वह राजनीति नहीं रह गई है मतलब गांधी की राजनीति को एक आदर्श मानना। उसी गांधी को जिसके हत्यारे को भाजपा की सांसद हीरो मानती हैं। और मोदी कहते हैं कि मैं उन्हें कभी दिल से माफ नहीं कर पाऊंगा। सांसद प्रज्ञा ठाकुर के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती बस इतना कहना ही पर्याप्त समझा जाता है कि उन्हें दिल से माफ नहीं किया जाएगा।
यह कोई छुपी बात नहीं है कि गांधी-नेहरू के खिलाफ ही भाजपा की पूरी राजनीति खड़ी हुई हैं। आपस में अनौपचारित बातचीत में गांधी की हत्या को जायज ठहराने वाली बाते करेंगे। वध तो सबके सामने कहते ही हैं। वध मतलब किसी कारण से ( जायज) की गई हत्या। इस पर जितने झूठ बोले जा सकते हैं। सब बोले गए हैं। यहां तक कि हत्या का आरोप नेहरू पर लगा देते हैं। अभी कुछ साल पहले गोविन्दाच्रार्य ने मांग की थी कि गांधी हत्या की जांच फिर से करवाई जाए। शक के माहौल को वे बनाए रखते हैं।
तो ऐसे में भाजपा के दो बड़े नेताओं का गांधी नेहरू को याद करने के क्या मतलब हैं? क्या सरकार में घुटन से बैचेन होकर वे नेहरू, गांधी के उदार विचारों तक पहुंचे? क्या यह मैसेज है कि जनता के लिए बिना कुछ किए केवल नकारात्मक मुद्दे उठाने से पार्टी में निराशा है? क्या सरकार और पार्टी में ऐसे असंतोष के स्वर और उठेंगे? या सबसे बड़ा सवाल कि संघ के खास माने जाने वाले इन दोनों नेताओं को नागपुर से कोई इशारा है?
गौरतलब है कि अभी संघ ने भी महंगाई पर चिंता व्यक्त की है। कुछ लोगों का मानना है कि मोदी संघ से ज्यादा ताकतवर हो गए हैं। मगर यह संभव नहीं लगता। मोदी भक्त बड़बोले हैं। संघ का नेटवर्क बहुत विशाल और शांतिपूर्वक काम करने वाला है।
महंगाई बड़ा सवाल बन चुकी है। आटे और छाछ जैसी चीजों पर पहली बार टैक्स ( जीएसटी) लगाने की व्यापक प्रतिक्रयाएं हो रही हैं। मगर प्रधानमंत्री मोदी महंगाई, रुपए की कीमत में लगतार गिरावट, बेरोजगारी, चीन की घुसपैठ पर कोई बात करने को तैयार नहीं हैं। अगर संघ का यह कन्सर्न (चिंता) है और इसीलिए राजनाथ और गडकरी बोले हैं तो फिर अभी कुछ और चीजें जल्दी सामने आएंगी। सरकार, पार्टी और संघ के अन्दर तो यह असंतोष बहुत समय से चल रहा है। मगर लगता है कि अब वह सतह पर आने लगा है। दब नहीं पा रहा।