राहत के लिए सिर्फ न्यायपालिका !
आजकल हर दिन अखबारों में यह सुर्खियां देखने को मिलती हैं कि फलाने को सुप्रीम कोर्ट से राहत, ढिमकाने को भी सुप्रीम कोर्ट से राहत या फलाने-ढिमकाने को सुप्रीम कोर्ट से राहत नहीं! किसी किसी को हाई कोर्ट से भी राहत मिल जाती है तो कोई निचली अदालत से ही राहत हासिल कर लेता है। सवाल है कि राहत देने का काम सिर्फ न्यायपालिका के हवाले कैसे हो गया है? क्या भारतीय संविधान के मुताबिक राहत देने वाली एकमात्र संस्था न्यायपालिका है या कोई और संस्था भी इस महान देश के नागरिकों को राहत दे सकती है? आखिर ऐसा क्या हो गया कि इस देश के आम नागरिक ही नहीं, बल्कि उद्योगपति से लेकर नेता तक सब राहत के लिए न्यायपालिका पर निर्भर हो गए?
फैक्ट चेक करने वाले मोहम्मद जुबैर को भी सुप्रीम कोर्ट ने राहत दी तो पैगंबर मोहम्मद पर टिप्पणी करने वाली भाजपा की पूर्व प्रवक्ता को भी राहत सुप्रीम कोर्ट ने ही दी। उससे पहले तीस्ता सीतलवाड या जकिया जाफरी को सुप्रीम कोर्ट से राहत नहीं मिली। उलटे सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के आधार पर तीस्ता सीतलवाड के खिलाफ मुकदमा भी दर्ज हो गया और गुजरात की पुलिस ने उनको गिरफ्तार भी कर लिया। अभी पिछले ही दिनों सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एनवी रमन्ना ने ‘जल्दबाजी में और अंधाधुंध गिरफ्तारियों और जमानत मिलने में हो रही देरी’ पर कड़ा ऐतराज जताया था। उन्होंने कहा था, ‘आज जैसे हालात हो गए हैं, उसमें प्रोसेस ही पनिशमेंट बन गया है’। भारत के चीफ जस्टिस ने जो कहा उससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि पुलिस जाने या अनजाने में लोगों की अंधाधुंध गिरफ्तारी कर रही है, जबकि इतनी गिरफ्तारियों की जरूरत नहीं है। पुलिस अगर अपना काम ठीक से करे तो इतनी गिरफ्तारी नहीं होगी। मोहम्मद जुबैर के मामले और उस पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों से भारत में पुलिस के कामकाज की एक झलक मिलती है।
दूसरा निष्कर्ष यह है कि अगर निचली अदालतें ‘बेल नॉट जेल’ के पवित्र न्यायिक सिद्धांत का पालन करें तो इतनी बड़ी संख्या में लोगों को जेल में बंद नहीं रहना होगा। देश में इस समय विचाराधीन कैदियों की संख्या दुनिया के किसी भी दूसरे देश से ज्यादा है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो, एनसीआरबी ने 2020 तक के जो आंकड़े इकट्ठा किए हैं उसके मुताबिक भारत की जेलों में बंद कैदियों में 76 फीसदी हिस्सा विचाराधीन कैदियों का है। इस आंकड़े के मुताबिक 2020 में भारत की जेलों में चार लाख 90 हजार के करीब कैदी बंद थे, जिनमें से तीन लाख 72 हजार के करीब विचाराधीन कैदी थे। यानी ऐसे कैदी, जिनके मामले की सुनवाई अदालतों में लंबित है। सोचें, चार लाख 90 हजार में से महज एक लाख 18 हजार ऐसे कैदी हैं, जो सजा काट रहे हैं, बाकी सुनवाई पूरी होने का इंतजार कर रहे हैं। इनमें से ज्यादातर ऐसे हैं, जिनको गिरफ्तार ही नहीं होना चाहिए था या गिरफ्तार हुए तो पहले ही जमानत मिल जानी चाहिए थी।
यह असल में देश की एक बड़ी समस्या का छोटा पहलू है। अपराध न्याय प्रणाली के अलावा राजनीतिक, सामाजिक या ऐतिहासिक मामलों में भी अब राहत देने वाली एकमात्र संस्था न्यायपालिका हो गई है। मुगलों के समय या उससे भी पहले मुस्लिम आक्रांताओं की गलतियों को सुधारना है तो अदालत में जाना है। विधायकों-सांसदों को दलबदल से रोकना है तो अदालत में जाना है। बहुमत साबित करना है तो अदालत में जाना है। सरकार ने कोई कानून बना दिया या कोई कानून नहीं बना रही है तो अदालत में जाना है। सरकार लोगों के घरों पर बुलडोजर चला रही है तो अदालत में जाना है। यहां तक कि सरकार बुनियादी सुविधाओं की व्यवस्था नहीं कर रही या सरकारी एजेंसियां मानवाधिकारों का उल्लंघन कर रही हैं तो भी राहत के लिए अदालत में जाना है।
सोचें, अगर राहत देने वाली यह एकमात्र संस्था राहत न दे तो क्या होगा? अगर यह संस्था किसी दबाव या पूर्वाग्रह में फैसला करने लगे तो क्या होगा? फिर लोग राहत के लिए कहां जाएंगे? क्या यह अच्छा नहीं होता कि सभी लोकतांत्रिक संस्थाएं आम लोगों को राहत देने के लिए काम करतीं और लोगों को राहत के लिए सर्वोच्च अदालत तक नहीं जाना होता? ध्यान रहे सर्वोच्च अदालत संवैधानिक अदालत है और उसका मुख्य काम संविधान का संरक्षण है। उसे न्यायिक समीक्षा का अधिकार है तो उसे उसी काम पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था ब्रिटेन से और न्यायिक व्यवस्था अमेरिका से ली गई है। अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट की तर्ज पर भारत का सुप्रीम कोर्ट बना है। लेकिन अमेरिका में शायद ही कभी यह सुनने को मिलेगा कि सुप्रीम कोर्ट में जमानत पर सुनवाई हो रही है। वहां सिर्फ बड़े संवैधानिक मसले सुप्रीम कोर्ट में जाते हैं, जहां कुल नौ जज होते हैं और हर मामले को सारे जज मिल कर सुनते हैं। अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में पूरे साल में सौ के करीब मामले सुने जाते हैं और कोई मामला लंबित नहीं रहता है। इसके उलट भारत की सर्वोच्च अदालत में 50 हजार से ज्यादा केस लंबित हैं और सभी अदालतों को मिला कर तीन करोड़ से ज्यादा केस पेंडिंग हैं।
ध्यान रहे किसी भी लोकतंत्र में हर संवैधानिक संस्था की जिम्मेदारी लोगों को राहत देने की होती है। उनका काम लोगों को परेशानी में डालना नहीं, बल्कि परेशानी से बचाना होता है। लेकिन भारत में ऐसा लगता है कि विधायिका और कार्यपालिका का काम लोगों को मुश्किल में डालना है, जबकि न्यायपालिका का काम लोगों को राहत देना है। कायदे से देश के नागरिकों को विधायिका और कार्यपालिका से राहत मिलनी चाहिए। इन दोनों संस्थाओं के साथ नागरिकों का ज्यादा से ज्यादा जुड़ाव होना चाहिए। दोनों का नागरिकों के साथ संवाद होना चाहिए ताकि इन दोनों संस्थाओं के फैसले या इनके कामकाज आम लोगों के लिए परेशानी पैदा करने वाले न हों। लोकतंत्र के सुचारू रूप से काम करने के लिए जरूरी है कि सभी संस्थाएं संविधान से मिले मैंडेट के मुताबिक काम करें। सभी संस्थाएं ईमानदारी से काम करेंगी तभी नागरिकों को राहत के लिए एक संस्था पर निर्भर नहीं होना होगा। एक संस्था पर निर्भरता से कई और विद्रूपताएं पैदा हो रही हैं, जो उस संस्था की साख के लिए भी अच्छी बात नहीं है।