आबादी पर राजनीति मत कीजिए
भारत में आबादी का मामला बहुत संवेदनशील है। एक तरफ सांप्रदायिक विभाजन है तो दूसरी ओर जातीय बंटवारा भी बहुत गहरा है। इस वजह से हर बार आबादी का आंकड़ा भारत में एक खास किस्म के विमर्श को जन्म देता है। तभी जैसे ही विश्व जनसंख्या दिवस के मौके पर संयुक्त राष्ट्र संघ के जनसंख्या डिवीजन ने यह आंकड़ा जारी किया कि अगले साल भारत दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश बन जाएगा वैसे ही इस पर राजनीति शुरू हो गई। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा, ‘एक वर्ग की आबादी बढ़ने की रफ्तार ज्यादा न हो जाए, ऐसा हुआ तो अराजकता फैलेगी’। उत्तर प्रदेश सबसे बड़ी आबादी वाला राज्य है और लोकसभा में सबसे ज्यादा सांसद भेजने वाला राज्य भी है। अगर उस राज्य में आबादी को लेकर यह आशंका पैदा की जाती है कि एक वर्ग की आबादी बढ़ रही है और उससे अराजकता हो सकती है तो इसके पीछे के मनोविज्ञान को समझा जा सकता है। ध्यान रहे उत्तर प्रदेश में जनसंख्या नियंत्रण कानून का मसौदा तैयार हो गया है और राज्य विधि आयोग के अध्यक्ष ने पिछले साल अगस्त में यह मसौदा सरकार को सौंपा था।
संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट का वस्तुनिष्ठ विश्लेषण करें तो कई ऐसी बातें सामने आएंगी, जो उस रिपोर्ट के बाद गढ़े जा रहे विमर्श को काटती हैं। मसलन भारत 2027 की समय सीमा से चार साल पहले ही दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश बन रहा है तो ऐसा इस वजह से नहीं हुआ कि भारत में आबादी तेजी से बढ़ रही है, बल्कि ऐसा इसलिए हो रहा है कि चीन में एक बच्चे की नीति की वजह से जनसंख्या दर निगेटिव हो गई और वहां उस अनुपात में आबादी नहीं बढ़ी, जिसका अनुमान लगाया गया था। हकीकत यह है कि भारत ने जनसंख्या नियंत्रण में अद्भुत काम किया है। जिस समय भारत में पहली जनसंख्या नीति बनी थी और जनसंख्या नियंत्रण का प्रयास शुरू हआ था उस समय भारत में टोटल फर्टिलिटी रेट यानी टीएफआर छह फीसदी थी और आज सात दशक के बाद वह दो फीसदी है। संयुक्त राष्ट्र संघ के मानकों के मुताबिक अगर कोई स्त्री 2.1 बच्चे पैदा करती है यानी किसी देश की टीएफआर 2.1 फीसदी हो जाती है तो वहां जनसंख्या स्थिर हो जाती है। भारत में यह दो फीसदी है, जिसका मतलब है कि भारत में जनसंख्या बढ़ने की दर थम गई है।
अफसोस की बात है कि भारत में आबादी बढ़ने को लेकर कई तरह के झूठ फैलाए गए हैं। यह धारणा बनाई गई है कि मुसलमानों की आबादी तेजी से बढ़ रही है। इस धारणा को आधार देने के लिए झूठे-सच्चे आंकड़े गढ़े गए हैं, जिनके जरिए बताया जाता है कि अमुक साल तक भारत में हिंदू अल्पसंख्यक हो जाएंगे। यह सही है कि कुछ जिलों में जनसंख्या संरचना बदली है और अनेक जिलों में मुस्लिम आबादी बहुसंख्यक हो गई है। यह भी सही है कि कई मुस्लिम बहुल जिलों में शरिया के नियम-कायदे लागू कराने का प्रयास हुआ है। हाल ही में झारखंड के दो जिलों से इस तरह की खबरें आईं। लेकिन यह अपवाद की घटनाएं हैं, जिनको ऐसे दिखाया जा रहा है, जैसे पूरे देश में ऐसा ही हो रहा है। उसके उलट पूरे देश में मुस्लिम आबादी भी तेजी से नियंत्रित हो रही है। 1992-93 में भारत में मुस्लिम आबादी की बढ़ने की दर यानी टीएफआर 4.4 फीसदी थी, जो 2019-20 में 2.3 हो गई। यानी मुस्लिम आबादी भी स्थिर होने की टीएफआर तक पहुंच गई है।
तभी आबादी के आंकड़ों को लेकर झूठ गढ़ने या गलत धारणा बनाने या राजनीति करने की जरूरत नहीं है। उसकी बजाय इस विशाल आबादी को एक संपदा मानते हुए इसके बेहतर इस्तेमाल की योजना बनाने की जरूरत है। दुनिया में काम करने की उम्र वाला हर पांचवां व्यक्ति भारत में रहता है। लेकिन अफसोस की बात है कि कामकाजी उम्र के ज्यादातर लोगों के पास काम नहीं है। संगठित क्षेत्र में नौकरियां नाममात्र की हैं और असंगठित क्षेत्र भी नोटबंदी, जीएसटी व कोरोना की वजह से दम तोड़ रहा है। स्वरोजगार के नाम पर किसी तरह से जीवन चलाने की व्यवस्था जरूर लोगों ने की है लेकिन वह पर्याप्त नहीं है। देश की आधी आबादी यानी महिलाओं का बड़ा हिस्सा वर्कफोर्स से बाहर है। ज्यादातर सेक्टर में उनके लिए काम करने की स्थितियां नहीं हैं। भारत में काम करने की उम्र यानी 15 साल से ऊपर की उम्र की सिर्फ 30 फीसदी महिलाएं ही किसी न किसी काम में शामिल हैं। इनमें भी ज्यादातर परिवार की खेती या कारोबार से जुड़ी हैं। जैसे जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य के स्तर में सुधार हो रहा है और महिलाएं बच्चे पैदा करने की एकमात्र जिम्मेदारी को पीछे छोड़ रही हैं वैसे वैसे उनके लिए रोजगार की बेहतर व्यवस्था की जरूरत महसूस हो रही है। आबादी नियंत्रित करने का कानून बनाने की बजाय ऐसी नीतियां बनाने की जरूरत है, जिनसे देश की विशाल आबादी के लिए सम्मानजनक रोजगार सुनिश्चित हो। अगर देश में जनसंख्या नियंत्रण का कोई कानून बनता भी है तो उसमें नियंत्रण के बाद की स्थितियों को लेकर जरूरी उपाय होने चाहिए। मसलन महिलाओं के स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार पर ध्यान होना चाहिए और साथ ही बुजुर्गों के सम्मान से जीने की व्यवस्था पर भी विचार होना चाहिए। इस सदी के समाप्त होने तक देश की 30 फीसदी आबादी 65 साल से ज्यादा उम्र की होगी।
बहरहाल, देश की विशाल आबादी को संसाधन में तब्दील करने के लिए कानून निर्माताओं को बुनियादी सुविधाओं में सुधार पर ध्यान देना चाहिए। सबसे बुनियादी जरूरत सस्ती और अच्छी शिक्षा व्यवस्था की है। अगर सबको अच्छी और सस्ती शिक्षा मिलती है तभी आबादी के बोझ को संसाधन में बदलने की कोई भी ठोस पहल हो सकती है। शिक्षा के अलावा पोषण और बेहतर चिकित्सा व्यवस्था भी उतनी ही जरूरी है। कुपोषित और बीमार आबादी किसी भी देश के विकास में योगदान नहीं कर सकती है। अंत में रोजगार की व्यवस्था है। भारत की केंद्र सरकार और राज्यों की सरकारों को कृषि से लेकर विनिर्माण तक के उन सभी क्षेत्रों के लिए ऐसी नीतियां बनानी चाहिए, जिससे अधिकतम रोजगार के अवसर पैदा हों। दुनिया के कई देशों ने इस मामले में रास्ता दिखाया है। भारत का पड़ोसी बांग्लादेश गारमेंट निर्यात में दुनिया में अव्वल देश बना है तो वह अपनी बड़ी आबादी में कौशल विकास करके ही ऐसा कर पाया है। भारत कई सेक्टर में ऐसी उपलब्धि हासिल कर सकता है। लेकिन वह तभी होगा, जब आबादी पर राजनीति बंद होगी और उसके सकारात्मक इस्तेमाल की नीतियां बनेंगी।