मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और संघीय व्यवस्था
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तेलंगाना गए तो मुख्यमंत्री कल्वकुंतल चंद्रशेखर राव ने उनकी अगवानी के लिए ख़ुद विमानतल जाने के बजाय राज्य के पशुपालन मंत्री को भेज दिया। इस पर बवाल हुआ। भारतीय जनता पार्टी ने इसका बुरा माना। हालांकि केसीआर ने नरेंद्र की अगवानी के लिए विमानतल न जाने की यह हिमाकत कोई पहली बार नहीं की थी। वे पहले भी दो बार प्रधानमंत्री के तेलंगाना आगमन पर उनका स्वागत करने नहीं गए थे। मगर इस बार इस पर शायद इसलिए ज़्यादा खलबली मची कि नरेंद्र के लिए सियासी मौसम अब रोज़-ब-रोज़ ज़रा कम सुहाना होता जा रहा है। ज़ाहिर है कि इससे उनके अनुयाइयों की व्याकुलता बढ़ती जा रही है।
अगर कोई मुख्यमंत्री देश के प्रधानमंत्री का सम्मान रखने के लिए विमानतल पर उनकी अगवानी को जाए तो यह अच्छी बात है। लेकिन अगर किसी वज़ह से वह नहीं जा सके या जानबूझ कर ही न जाए तो इसे देशद्रोह सरीखा भी क्यों माना जाए? किसी मुख्यमंत्री को अपने राज्य में प्रधानमंत्री के आने पर उनकी अगवानी के लिए जाने की कोई संवैधानिक अनिवार्यता तो है नहीं? क्या मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री के मातहत हैं? नहीं। क्या प्रधानमंत्री मुख्यमंत्रियों के नियोक्ता हैं? नहीं। क्या मुख्यमंत्री सारे मामलों में प्रधानमंत्री के प्रति जवाबदेह हैं? नहीं। मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल करते हैं। मुख्यमंत्री का निर्वाचन विधायक करते हैं। इस नियुक्ति से संवैधानिक तौर पर प्रधानमंत्री का कोई लेनादेना ही नहीं है।
मुख्यमंत्री उसी तरह अपने प्रदेश का सर्वोच्च निर्वाचित प्रतिनिधि है, जिस तरह केंद्र में प्रधानमंत्री हैं। संविधान के सातवें अनुच्छेद में 61 विषय ऐसे हैं, जिनका फ़ैसला राज्य सरकारें करती हैं। इन मामलों में राज्य अपने क़ानून बना कर लागू कर सकते हैं। पहले उन्हें 66 विषयों पर ख़ुद निर्णय करने का हक़ था। बाद में पांच विषय कम कर दिए गए। 100 विषय केंद्र सरकार के हाथ में हैं। उन पर अंतिम निर्णय लेने का हक़ अकेले केंद्र का है। 52 विषय ऐसे हैं, जिन पर अंतिम फ़ैसला केंद्र और संबंधित राज्य सरकार की सहमति से लिया जाता है। जिन विषयों का ज़िक्र केंद्र, राज्य और परस्पर सहमति की सूचियों में नहीं है, उन पर अंतिम निर्णय करने का अधिकार संविधान ने केंद्र सरकार को दिया है।
संविधान में राज्यों के भौगोलिक क्षेत्रों और अधिकारों को पूरी तरह स्पष्ट कर दिया गया है। सो, हमारे देश की संघीय व्यवस्था में मुख्यमंत्री सिर्फ़ अपने प्रदेश की विधानसभा के प्रति ज़िम्मेदार है। उससे जवाब तलब करने का अधिकार सिर्फ़ राज्यपाल को है। केंद्र से संबंधित विषयों के लिए उसे केंद्र की सरकार यानी प्रधानमंत्री के सहयोग की ज़रूरत होती है। लेकिन मुख्यमंत्री किसी भी लिहाज़ से प्रधानमंत्री के अधीनस्थ नहीं है। न ही वह प्रधानमंत्री को सीधे रिपोर्ट करने के लिए बाध्य है।
आज़ादी के बाद बहुत वक़्त तक केंद्र और राज्यों में आमतौर पर एक ही राजनीतिक दल की सरकारें बनती रहीं। इससे यह परंपरा पड़ गई कि प्रधानमंत्री के किसी प्रदेश में आगमन पर वहां के मुख्यमंत्री गाजे-बाजे के साथ उनकी अगवानी को जाने लगे। प्रधानमंत्री अपने राजनीतिक दल के अध्यक्ष भी होते थे और नहीं तो सत्तारूढ़ दल के सर्वोच्च नेताओं में से एक तो हुआ ही करते थे, इसलिए यह अगवानी उसी राजनीतिक दल के प्रादेशिक नेता द्वारा अपने केंद्रीय नेता को सम्मान देने के लिए हुआ करती थी। वह एक मुख्यमंत्री द्वारा एक प्रधानमंत्री की तकनीकी अगवानी नहीं होती थी।
अब जब केंद्र और राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें होती हैं तो आप किसी राजनीतिक दल के प्रादेशिक नेता से यह उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि वह दूसरे राजनीतिक दल के केंद्रीय नेता का स्वागत करने जाए-ही-जाए? अगर कोई मुख्यमंत्री देश के प्रधानमंत्री के प्रति सम्मान ज़ाहिर करने के लिए ख़ुद जाना चाहे तो इस शिश्टाचार के लिए उसकी तारीफ़ होनी चाहिए, लेकिन अगर वह राज्य-शासन की तरफ़ से किसी और को भेज दे तो तानाकशी के लट्ठ ले कर उस पर पिल पड़ने की भी क्या ज़रूरत है? अभी 15 राज्यों की सरकारें या तो भाजपा की हैं या वह सरकार में शामिल है। इन सभी के मुख्यमंत्री अपने-अपने राज्यों में नरेंद्र की अगवानी करने ज़ोर-शोर से जाएं। उन्हें जाना ही चाहिए। नरेंद्र प्रधानमंत्री ही नहीं हैं, वे भाजपा के सबसे बड़े और सबसे मजबूत नेता भी हैं। भाजपा के जन-प्रतिनिधियों को उनके स्वागत में पलक-पांवड़े बिछाने का पूरा हक़ है। लेकिन अगर बाकी प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों में से कोई विमानतल न पहुंचे तो उसे सबक सिखाने की गांठ मन में बांध लेना भी सियासी शिश्टाचार के विपरीत है।
किसी भी राजनीतिक दल के मुख्यमंत्रियों का देश के प्रधानमंत्री की अगवानी के लिए जाना-न-जाना तो चलिए फिर भी समझ में आया। लेकिन ये जो राज्यपाल खींसे निपोरते हुए प्रधानमंत्री की अगवानी के लिए विमानतल जा कर खड़े हो जाते हैं, उनसे तो हाथ जोड़ कर कहा जाना चाहिए कि संविधान की ऐसी फ़ज़ीहत तो मत कीजिए। पहले वाले करते थे तो भी ग़लत करते थे और आज वाले करते हैं तो भी ग़लत करते हैं। हर प्रदेश के लिए राज्यपाल को नामित भले ही केंद्र सरकार करती है, लेकिन उसकी नियुक्ति प्रधानमंत्री नहीं, राष्ट्रपति करते हैं। राज्यपाल केंद्रीय शासन का हिस्सा नहीं होते हैं। वे पूरी तरह स्वतंत्र संवैधानिक संस्था हैं। वे न तो केंद्र सरकार के अधीन हैं और न केंद्र सरकार के लिए सेवारत हैं। राज्यपाल बनने के बाद व्यक्ति किसी भी राजनीतिक दल से संबद्ध भी नहीं रह सकता है। इसलिए मेरे हिसाब से तो किसी भी राज्यपाल को किसी भी प्रधानमंत्री की अगवानी के लिए विमानतल पर जाना ही नहीं चाहिए। उसे सिर्फ़ राष्ट्रपति का स्वागत करने जाना चाहिए।
राज्यपाल को निजी स्वतंत्रता का यह अधिकार भी नहीं हो सकता है कि वह अपनी व्यक्तिगत हैसियत से प्रधानमंत्री की अगवानी के लिए विमानतल पहुंच जाए। ऐसा करना क्या संवैधानिक मर्यादा का उल्लंघन नहीं होगा? राज्यों के उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति तकनीकी तौर पर कालेजियम करता है, लेकिन इस प्रक्रिया में उस प्रदेश के मुख्यमंत्री को अनुशंसा का अधिकार है और केंद्र सरकार के क़ानून और न्याय मंत्रालय की भी अहम भूमिका होती है। क्या कोई भी न्यायाधीश यह कर सकता है कि अपने शहर में मुख्यमंत्री के आगमन पर ग़ुलदस्ता लेकर विमानतल पहुंच जाए? सोचिए, अगर ऐसा होने लगे तो कैसा लगेगा? अगर स्वायत्त संवैधानिक संस्था होने के नाते न्यायिक व्यवस्था का कोई सदस्य मुख्यमंत्री, क़ानून मंत्री और प्रधानमंत्री की अगवानी के लिए मर्यादा भंग नहीं कर सकता है तो किसी राज्यपाल को गृहमंत्री या प्रधानमंत्री की अगवानी के लिए जाने की इजाज़त क्यों होनी चाहिए?
मेरा तो मानना है कि प्रधानमंत्री को ख़ुद कम-से-कम राज्यपालों से तो यह औपचारिक निवेदन कर ही देना चाहिए कि वे उनके स्वागत के लिए विमानतल आने का कष्ट न करें। चाहें तो उनके सम्मान में राजभवन में स्वागत भोज या चायपान रख लिया करें। अब तक अगर राज्यपाल प्रधानमंत्री के स्वागत में विमानतल पहुंचते रहे तो एक संवैधानिक संस्था की गरिमा को आहत करते रहे। अगर अब तक के प्रधानमंत्री उनसे विमानतल पर ग़ुलदस्ते लेते रहे तो ग़लत करते रहे। नरेंद्र भाई को तो इस मर्यादा की रक्षा करने का क़दम उठाने में एकदम नहीं चूकना चाहिए। शुभस्य शीघ्रम!