कांग्रेस की ताकत राहुल और राहुल दुविधा में!

भीम की ताकत गदा में थी, अर्जुन की धनुष में ऐसे ही कांग्रेस की ताकत कहां है यह प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह को मालूम है। खुद कांग्रेस को मालूम है कि नहीं, पता नहीं!

पिछले दिनों भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हैदराबाद में हुई। देश तनाव, नफरती माहौल, न्यायपालिका पर हमले जैसी गंभीर समस्याओं से जूझ रहा है। लेकिन अगर आप देश की सत्तारुढ़ पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की चिंता देखें तो आपको लगेगा कि भारत की सबसे बड़ी समस्या कांग्रेस और कांग्रेस में उसका वंशवाद है। पहले दिन ही प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह कांग्रेस और गांधी नेहरू परिवार पर जमकर बरसे।

यही कांग्रेस की ताकत है। नेहरू गांधी परिवार। उसी तरह जैसे भाजपा की ताकत संघ है। क्या बिना संघ के आप भाजपा की कल्पना कर सकते हैं? बिल्कुल नहीं। क्या होगा। भाजपा एकदम खोखली नजर आएगी। ऐसे ही बिना नेहरू गांधी परिवार के कांग्रेस हो जाएगी। तेजहीन!

मोदी और अमित शाह यह जानते हैं। इसीलिए उनका जो हमला कांग्रेस पर होता है वह कांग्रेस पर नहीं राहुल गांधी पर होता है। यदि पार्टी से राहुल का प्रभाव खत्म हो जाए तो जैसा अमित शाह हैदराबाद में कह रहे थे कि भाजपा तीस चालीस साल कहीं नहीं जाएगी। सच है। कोई उसे चुनौती देने वाला नहीं रहेगा। विपक्ष के नाम पर पार्टियां तो बहुत होंगी मगर अखिल भारतीय कोईनहीं। और नाम के लिए जो आल इंडिया कांग्रेस होगी वह बिना राहुल के प्राणहीन होगी। जिसका अस्तित्व तो होगा मगर किस लिए यह उसे खुद ही नहीं मालूम होगा। जैसा 1996 में केन्द्र सरकार जाने के बाद कांग्रेस का हो गया था। दो साल कांग्रेस हवा के झोंकों की तरह इधर से उधर डोलती रही। तीन प्रधानमंत्री हो गए देवगौड़ा, गुजराल, वाजपेयी मगर कांग्रेस का रोल बस इसे समर्थन देना इससे वापस लेना इनका विरोध करना तक ही सीमित रह गया। एक से एक बड़े कांग्रेसी नेता थे। नरसिंहा राव, सीताराम केसरी, प्रणव मुखर्जी मगर कांग्रेस बिखरी बिखरी थी।

ऐसे में सोनिया गांधी आईं। वह सोनिया गांधी जो ठीक से हिन्दी भी नहीं बोलपाती थीं। सार्वजनिक जीवन में कोई रूचि नहीं थी। घर, परिवार बच्चों के अलावा कुछ सोचा नहीं था। मगर नाम था इन्दिरा गांधी की बहु का। राजीव गांधी की पत्नी का। किसी ने गंभीरता से नहीं लिया। मगर कार्यकर्ताओं में नया जोश आ गया। यही इस परिवार की ताकत है। कार्यकर्ता इसके नाम से इकट्ठा हो जाते हैं। और कई बार असंभव को संभव बना देते हैं। अटल बिहारी वाजपेयी जो पंडित जवाहरलाल नेहरू से लेकर इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी तक से लड़ते रहे उन्हें सत्ता से बाहर करके उनकी करीब छह दशक की राजनीति पर पूर्णविराम उन सोनिया गांधी ने लगाया जिसे वे 2004 कीलोकसभा हारने हारने तक विदेशी महिला कहते रहे। यह कांग्रेस की वह ताकत थी जो परिवार को देखते ही कई गुना बढ़ जाती है। और यही स्थिति जनता की है।

वह आज भी इस परिवार पर जान छिड़कती है। बशर्त परिवार का सदस्य उसी तरह खुल कर सामने आए जैसे 2004 में सोनिया गांधी आई थीं। पूरे देश को छान मारा था। हर जगह गईं। और वाजपेयी जिस समय इंडिया शाइनिंग का नारा दे रहे थे उन्होंने आम आदमी की बदहाल जिन्दगी की तस्वीर सामने रखकर सारी कलई उतार दी।

आज राहुल दुविधा में हैं। तो कांग्रेस भी टूटी बिखरी सी है। हर आदमी अपना नेता खुद है। राहुल को चुनौती देने वाले जी 23 के नेताओं से लेकर राहुल के विश्वासपात्र बने नेता सब अपनी अपनी दुकानें खोले बैठे हैं। जैसे जब कई पीढ़ियों से परंपरागत खानदानी दुकान कमजोर हो जाती है तो आसपास के सारे दुकानदार कहने लगते हैं कि यही है असली दुकान।

लेकिन इतने कमजोर राहुल के बावजूद मोदी जी जानते हैं कि उनके लिए असली चुनौती यही राहुल गांधी है। इसीलिए वे कोई मौका वंशवाद पर प्रहार का नहीं छोड़ते। कोई भाषण उनका ऐसा नहीं होता जिसमें उन्होंने प्रत्यक्ष या घुमा फिराकर राहुल पर हमला नहीं किया हो। कांग्रेस में राहुल पर हमला करने वालों को उनका समर्थन हमेशा मिलता रहता है।

राहुल ने इस बार राज्यसभा चुनाव में यह समझा था और जी 23 के किसी सदस्य को टिकट नहीं दिया। कपिल सिब्बल दूरदर्शी थे। पहले ही चले गए। और सपा से अपनी राज्यसभा का इंतजाम कर लिया। मगर गुलामनबी आजाद और आनंद शर्मा आखिरी तक भरोसे में रहे कि उनके अनुभव को कांग्रेस ऐसे ही नहीं वृथा जाने देगी। दोनों राज्यसभा में कांग्रेस दल के नेता और उप नेता थे। आजाद को तो नेता विपक्ष का पद मिला हुआ था। मगर इन्हें न देकर राहुल ने बाकी जिन लोगों को टिकट दिए उनमें से चिदम्बरम, जयराम रमेश को छोड़कर बाकी लोगों की कांग्रेस में उपयोगिता को लेकर भी कई सवाल उठे।

बागियों को न दो यह तो कांग्रेस के आम नेताओं और कार्यकर्ताओं ने स्वीकर किया। मगर फिर उन लोगो को दो जो सिर्फ राहुल के आसपास ही मंडराते रहते हैं मगर पार्टी में उनकी कोई उपयोगिता नहीं है यह सच्चे कांग्रेसियों की समझ में नहीं आया। दो नाम तो इनमें ऐसे थे। जो बागियों के साथ थे। मुकुल वासनिक और विवेक तनखा। सोनिया को लिखे बगावती पत्र में साइन किए। बागियों की हर मीटिंग में शामिल हुए। लेकिन उन्हें माफी मिल गई। उसमें कोई बुराई नहीं है। मगर क्यों? यह सवाल आम काग्रेसियों के मन में है। यह फांस ही बुरी होती है। क्यों बगावती हुए? क्यों इनाम मिला? और सबसे बढ़कर पार्टी में इनकी उपयोगिता क्या है?

तनखा कांग्रेस के लीगल डीपार्टमेंट के चैयरमेन हैं। पिछले छह सालों से। कितने लोगों को मालूम है यह बात? जनता और कार्यकर्ताओं को तो छोड़िए कांग्रेस के नेताओं तक को नहीं मालूम। अभी मीडिया डिपार्टमेंट की नई टीम ने झूठी खबरों के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया। भाजपा नेताओं, मीडिया को कानूनी कारर्वाई की चेतावनी दी। कुछ नोटिस भी दिए। एफआईआर भी की। मगर इस सारी प्रक्रिया में कांग्रेस का कोई लीगल डिपार्टमेंट भी है यह किसी ने नहीं सुना। इसी दौरान कई लोग तो यह मांग करते भी नजर आए कि कांग्रेस में एक लीगल डिपार्टमेंट भी होना चाहिए। जबकि इसका बाकायदा कांग्रेस मुख्यालय में एक आफिस है। मगर तनखा एक दो बार को छोड़कर कभी यहां नहीं आए।

ऐसे ही वासनिक का मध्यप्रदेश में क्या रोल है किसी को नहीं पता। कमलनाथ जैसे शक्तिशाली प्रदेश अध्यक्ष के होते कुछ हो भी नहीं सकता। मगर उनके सहयोग से ही वे राज्य में संगठन को मजबूत करने का कुछ काम तो कर सकते थे। लेकिन वह भी नहीं किया। वासनिक मध्य प्रदेश के इन्चार्ज हैं। वहां स्थानीय निकायों के चुनाव चल रहे हैं। नगर निगम, नगर पालिका, पंचायतों के। बड़े महत्वपूर्ण चुनाव हैं। पार्टी के टिकटों पर हो रहे हैं। इनके नतीजे अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव पर भी असर डालेंगे। मगर इनमें वासनिक की भूमिका क्या रही किसी को नहीं पता। बस वे राजस्थान से राज्यसभा जीत गए इतना ही मध्य प्रदेश के कांग्रेसियों को मालूम है।

चुनाव अगले महीने एक और होने वाले हैं। कांग्रेस के लिए सबसे निर्णायक चुनाव। उसके अध्यक्ष का चुनाव। कांग्रेस का भविष्य क्या होगा वह अगस्त में होने वाले संगठन के इन चुनावों पर ही निर्भर करेगा। राहुल दुविधा छोड़ नहीं रहे हैं। और सब कुछ राहुल को ही करना है। वे खुद बनेंगे या किसी और को बनाएंगे।

मोदी और अमित शाह की निगाहें इसी पर लगी हुई हैं। वे शतरंज की तरह देख रहे हैं कि कांग्रेस का बादशाह खुद को बचाने में ही लगा रहेगा या आगे बढ़कर उनके लिए चुनौती बनेगा। राहुल में साहस की कमी नहीं। मगर वे अध्यक्ष बनकर लड़ने को साहस मानते हैं या नहीं सवाल इस समझ का है। अगर राहुल इस मौके को चूके तो उनकी राजनीति तो खत्म होगी ही यह मोदी शाह के वंशवाद के अजेंडे की भी बड़ी जीत होगी।

राहुल राजनीति के हीरा हैं। मगर खुद को संभालने में असमर्थ। ऐसा होता है। जैसा इस लेख के पहले ही वाक्य में एक नाम लिया अर्जुन। वैसा ही। युद्ध के ठीक बीच में दुविधा ग्रस्त। मगर कृष्ण सब संभाल लेते हैं। कांग्रेस के पास हैं। मगर पता नहीं क्यों कांग्रेस “भरत से सुत पर भी संदेह” जैसी शंका से घिरी है। योग्य, अनुभवी नेता हैं। जिनकी वफादारी भी हर संदेह से परे है। मगर पता नहीं क्यों ऐसे लोगों को राहुल से दूर कर दिया जाता है।

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