सोनिया की अपील कौन सुन रहा है?

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कार्य समिति की बैठक में एक बड़ी मार्मिक अपील की। उन्होंने अपने नेताओं से कहा कि ‘पार्टी हम सबके लिए अच्छी रही है और अब समय है कि इसका कर्ज चुकाया जाए’। इस तरह की मार्मिक अपील आमतौर पर कांग्रेस में नहीं की जाती है। कांग्रेस के नेता पार्टी के बारे में इस तरह से सोचते भी नहीं है। जिस तरह से भाजपा के नेता अक्सर कहते मिलते हैं कि पार्टी उनकी मां की तरह है उस तरह क्या आपने कभी किसी कांग्रेस नेता के मुंह से ऐसी बात सुनी है? कांग्रेस के नेता इस तरह की भावनाओं में नहीं बहते हैं। उनके लिए पार्टी राजनीति करने, सत्ता हासिल करने और सत्ता के मजे लेने का माध्यम है। पार्टी के प्रति इसी सोच के चलते कांग्रेस के नेता पलक झपकते अपनी निष्ठा बदल लेते हैं। इसलिए सोनिया गांधी की इस मार्मिक अपील का कोई मतलब नहीं है।

कांग्रेस नेताओं ने निश्चित रूप से इस अपील को एक कान से सुना होगा और दूसरे कान से निकाल दिया होगा और इस उधेड़बुन में लग गए होंगे कि पार्टी उन्हें क्या दे सकती है। कांग्रेस के नेताओं की पहली चिंता यह होती है कि पार्टी उन्हें क्या दे सकती है। दूसरी चिंता यह होती है कि अगर अभी तत्काल नहीं दे सकती है तो कितना इंतजार करना होगा और निकट भविष्य में कुछ मिलने की संभावना है या नहीं। तीसरी चिंता यह होती है कि अगर कांग्रेस नहीं दे सकती है तो और कहां से कुछ मिल सकता है। जो लोग राजनीति कर रहे हैं उनके लिए ऐसी सोच रखना कोई बुरी बात भी नहीं है। लेकिन कांग्रेस के मामले में बुरी बात यह है कि इसके ज्यादातर नेता सिर्फ कुछ पाने की उम्मीद में रहते हैं, पार्टी कुछ देने लायक बने इसकी चिंता बहुत कम नेताओं को होती है।

इसका मुख्य कारण यह है कि कांग्रेस पिछले कुछ दशकों में ऐसे नेताओं की पार्टी बन गई है, जिनकी एकमात्र योग्यता नेहरू-गांधी परिवार के प्रति विश्वासपात्र होना है। यह नेतृत्व की गलती है, जो उसने ऐसे नेताओं को बढ़ावा दिया, जिनकी एकमात्र योग्यता परिवार के प्रति निष्ठा थी। भाजपा में भी इन दिनों यहीं राजनीति चल रही है। पार्टी में आगे बढ़ने और पद पाने की एकमात्र योग्यता शीर्ष नेतृत्व के प्रति निष्ठा और उसका सार्वजनिक प्रदर्शन हो गया है। जब भाजपा के शीर्ष नेताओं का करिश्मा खत्म होगा तब पार्टी को इसका खामियाजा भुगतना होगा। ठीक उसी तरह जैसे नेहरू-गांधी परिवार का करिश्मा खत्म होने के बाद कांग्रेस भुगत रही है। जब तक कांग्रेस के प्रथम परिवार का करिश्मा कायम था, तब तक कांग्रेस को भी कोई दिक्कत नहीं हुई थी। तब कांग्रेस नेतृत्व मजबूत और जमीनी नेताओं को दरकिनार कर अपने कथित विश्वासपात्र नेताओं को आगे बढ़ाती रही। कांग्रेस नेतृत्व या करिश्मे की ताकत से मजबूत हुए ऐसे नेता या तो पार्टी छोड़ कर जा चुके हैं या पार्टी नेतृत्व को आंखें दिखा रहे हैं या बेचारे बन कर कुछ हासिल हो जाने की उम्मीद में पार्टी में बने हुए हैं।

कांग्रेस के सिद्धांत या विचारधारा के प्रति बढ़-चढ़ कर प्रतिबद्धता प्रदर्शित कर रहे या सोनिया-राहुल गांधी के प्रति निष्ठा का प्रदर्शन कर रहे नेताओं को देख कर किसी भ्रम में पड़ने की जरूरत नहीं है। इन नेताओं की भी विचारधारा या पार्टी नेतृत्व के प्रति कोई खास निष्ठा नहीं है। इनमें से ज्यादातर ऐसे हैं, जिनको आज भी पार्टी की वजह से कुछ मिला हुआ है। आज अगर पार्टी उनसे उनका पद लेकर किसी और को दे दे तब उनकी प्रतिबद्धता और निष्ठा की असली परीक्षा होगी। पहले भी कांग्रेस के नेता इंदिरा या राजीव गांधी के प्रति अपनी निष्ठा का ऐलान और प्रदर्शन करते थे। लेकिन असल में वे सब इंदिरा या राजीव गांधी के करिश्मे पर निर्भर नहीं थे। वे सद्भाव दिखाने के लिए पार्टी आलाकमान के प्रति निष्ठा दिखाते थे, लेकिन उनकी अपनी भी ताकत होती थी, जिसके दम पर वे चुनाव जीतते थे। पिछले दो-तीन दशक में यह स्थिति बदल गई है। गणेश परिक्रमा करने वाले नेताओं को आगे बढ़ाने का नतीजा यह हुआ है कि अब पार्टी के पास मजबूत और करिश्माई नेता नहीं बचे हैं। या तो उनका निधन हो गया या वे पार्टी छोड़ कर चले गए हैं। अब ज्यादातर गमले में उपजे बोनसाई किस्म के नेता बचे हैं, जिनकी एकमात्र ताकत नेहरू-गांधी परिवार की परिक्रमा करना है।

सो, कांग्रेस अध्यक्ष को इन नेताओं से कोई उम्मीद नहीं करनी चाहिए। अगर वे सोच रही हैं कि पार्टी का कर्ज चुकाने की मार्मिक अपील का कोई असर नेताओं पर होगा तो वे गलतफहमी में हैं। क्या वे नहीं जानती हैं कि उन्होंने जिन लोगों को बड़े बड़े पदों से नवाजा उनकी काबिलियत क्या थी? उन्हें पार्टी का काम करने के लिए पद दिया गया था या परिवार की सेवा और परिवार के प्रति निष्ठा के सार्वजनिक प्रदर्शन के बदले बड़े पदों से नवाजा गया था? अगर वे इस बात को जानती हैं तो फिर ऐसे नेताओं से कैसे उम्मीद कर सकती हैं कि वे पार्टी का कर्ज उतारने के नाम पर कुछ करेंगे? अव्वल तो ज्यादातर नेता गणेश परिक्रमा करने वाले हैं वे जमीनी राजनीति में पार्टी को मजबूत करने वाला कोई काम कर ही नहीं सकते हैं और जो कर सकते थे या कर सकते हैं वे ऐसे गणेश परिक्रमा करने वाले नेताओं से परेशान होकर पार्टी छोड़ चुके हैं या छोड़ने की तैयारी में हैं।

यह बहुत मोटी और प्रत्यक्ष बात है, जिसे समझने के लिए किसी दूरदृष्टि की जरूरत नहीं है। अगर सोनिया और राहुल गांधी अपने आसपास बारीकी से देखेंगे तो उनको समझ में आ जाएगा कि क्यों सिर्फ कांग्रेस पार्टी के नेता ही इतनी बड़ी तादाद में दलबदल करते हैं और कांग्रेस की विचारधारा की बिल्कुल विरोधी विचारधारा के साथ जाकर खड़े हो जाते हैं। इसका कारण यह है विचारधारा या नेतृत्व के प्रति उनकी निष्ठा सच्ची नहीं होती है। बहरहाल, कांग्रेस छोड़ने वाले नेताओं की तीन श्रेणियां हैं। एक श्रेणी ऐसे अवसरवादी नेताओं की है, जो नेहरू-गांधी परिवार के करिश्मे पर पले-बढ़े और जब करिश्मा कम हुआ तो दूसरे करिश्माई नेतृत्व को पकड़ लिया। ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद, आरपीएन सिंह आदि को इस श्रेणी में रख सकते हैं। दूसरी श्रेणी उन नेताओं की है, जो मजबूत जमीनी नेता थे लेकिन पहली श्रेणी वाले नेताओं की वजह से पार्टी में अपनी योग्यता व क्षमता के अनुरूप पद नहीं मिला। हिमंता बिस्वा सरमा, जगन मोहन रेड्डी आदि को इस श्रेणी में रखा जा सकता है। तीसरी श्रेणी अति महत्वाकांक्षी नेताओं की है, जिनके लिए कांग्रेस का आकार छोटा पड़ रहा था। शरद पवार, ममता बनर्जी आदि को इस श्रेणी में रख सकते हैं। अफसोस की बात है कि कांग्रेस के पास अब ज्यादातर नेता पहली श्रेणी के बचे है, जिनकी एकमात्र योग्यता गणेश परिक्रमा करने की है। अगर कांग्रेस आलाकमान जल्दी से जल्दी इन नेताओं से मुक्ति नहीं पाता है तो दूसरी और तीसरी श्रेणी के थोड़े बहुत बचे हुए नेता भी पार्टी छोड़ जाएंगे।

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