जिन्ना, नेहरू और श्रीप्रकाश

बात भारत विभाजन के बाद की है। जब पाकिस्तान बना तब जिन्ना पाकिस्तान के हीरो बने तो नेहरू भारत के। लेकिन दोनों के समक्ष संकट था कि दोनों देश अपने-अपने मुल्क में उच्चायुक्त किसे बनाएं।

पाकिस्तान को अलग देश बनाए जाने की घोषणा के बाद से ही भारत के समक्ष एक बड़ा संकट खड़ा हुआ कि पाकिस्तान में भारत का उच्चायुक्त किसे बनाया जाए। पहली शर्त यह थी कि कोई राजनेता ही उच्चायुक्त बने। क्योंकि किसी भी आईसीएस अफ़सर के बूते की यह बात नहीं थी। कोई ऐसा व्यक्ति जो पाकिस्तान के हुक्मरानों और वहां की जनता के साथ सामान्य कूटनयिक सम्बन्ध बना सके। उस समय पाकिस्तान के गवर्नर जनरल मुहम्मद अली जिन्ना और प्रधानमंत्री नवाबज़ादा लियाक़त अली भारत के सारे नेताओं-मंत्रियों-नौकरशाहों और यहाँ के भूगोल से अच्छी तरह वाकिफ थे मगर भारत में ऐसे लोग नहीं थे।

इसलिए प्रधानमन्त्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने तय किया कि श्रीप्रकाश जी को पाकिस्तान में भारत का उच्चायुक्त बनाया जाए। श्रीप्रकाश जी 1946 तक दिल्ली में सेन्ट्रल असेम्बली के सदस्य रह चुके थे। उस समय जिन्ना और लियाक़त अली भी इसी सदन के सदस्य थे इसलिए उनके सबसे अच्छे ताल्लुकात थे। इसके अलावा श्रीप्रकाश जी के पिता डाक्टर भगवान दास स्वतंत्रता सेनानी और शिक्षाविद थे। काशी विद्यापीठ की स्थापना डाक्टर भगवान दास ने ही गाँधी जी की प्रेरणा से की थी।

ज़ाहिर है श्रीप्रकाश जी के कांग्रेस और मुस्लिम लीग के सभी बड़े नेताओं से अच्छे सम्बन्ध थे। उनको पाकिस्तान में भारत का उच्चायुक्त नियुक्त करने के पीछे नेहरु जी की यही मंशा थी कि ऐसी विषम स्थिति में किसी नौकरशाह के मुकाबले श्रीप्रकाश जी ज्यादा बेहतर तरीके से हालात संभाल लेंगे। और हुआ भी यही। श्रीप्रकाश जी उच्चायुक्त बनने के कतई इच्छुक नहीं थे। उन्होंने नेहरु जी अपनी अनिच्छा ज़ाहिर की तो नेहरु जी ने उनसे कहा कि एक बार हो आओ और लौट कर आना तब बताना। श्रीप्रकाश जी को पाकिस्तान द्वारा अपनी आज़ादी की घोषणा करने के दस दिन पूर्व ही कराची (उस समय की पाकिस्तान की राजधानी) भेज दिया गया। तब तक वहां उच्चायुक्त का दफ्तर तो दूर एक कर्मचारी तक नहीं नियुक्त हुआ था। वे कराची के एक होटल में जाकर रुके। पाकिस्तान ने अपनी आज़ादी का दिन 14 को मनाया और भारत ने 15 को। उस दिन श्रीप्रकाश जी ने होटल के कमरे में ही तिरंगा फहरा लिया और खुद ही राष्ट्रगान गा लिया। होटल कर्मचारियों ने उनकी झंडा रंगने, बांस का जुगाड़ आदि करने में कुछ मदद जरूर की।

उच्चायुक्त दफ्तर बनने के बाद दिल्ली से एक आईसीएस (अंग्रेजों के वक़्त की इंडियन सिविल सर्विस) अफसर को वहां उप उच्चायुक्त बनाकर भेजा गया। अब उसकी कार्यशैली अलग थी। वह हर कार्य की रिपोर्ट दिल्ली में बैठे अपने उच्च अधिकारियों को देता और कोई भी काम अपने सीनियर अफसरों से पूछे बिना नहीं करता। यहाँ तक कि वह श्रीप्रकाश जी की भी अनदेखी करता। हालाँकि वो उसके तात्कालिक बॉस थे मगर वे चूँकि आईसीएस नहीं थे इसलिए वह उनकी अनदेखी करता। लेकिन नाजुक मौकों पर उसके हाथ-पाँव फूल जाते क्योंकि पब्लिक से निपटने का, आम लोगों से रूबरू होने का उसके पास कोई अनुभव नहीं था।

श्रीप्रकाश जी ने उस दौर पर एक अच्छी पुस्तक लिखी है- पाकिस्तान के प्रारम्भिक दिन। दुर्भाग्य से वह पुस्तक अब अनुपलब्ध है। इस पुस्तक में उन्होंने उस समय के राजनीतिक, सामाजिक और साम्प्रदायिक हालात का बहुत अच्छा वर्णन किया है। खासतौर पर नौकरशाही और राजनीतिकों के बीच के संबंधों का। क्योंकि भारत और पाकिस्तान दोनों ही देशों की नौकरशाही आखिर थी तो ब्रिटिश राज की ही स्वामिभक्त। इसलिए नए हुक्मरानों के साथ वह सहज नहीं हो पा रही थी। उसे न तो आज़ादी के बाद के राजनेताओं की सादगी पसंद थी न पब्लिक के साथ उनका उठना-बैठना। उसने तो अंग्रेज हुक्मरानों को ही देखा था जो भारत में जनता से कोई भी सीधा संवाद नहीं करते थे। ऐसे ही एक नाजुक मौके का वर्णन करते हुए श्रीप्रकाश जी ने लिखा है कि जब हैदराबाद के निजाम पर भारत के तत्काल गृहमंत्री सरदार पटेल ने कार्रवाई की तो पाकिस्तान में यह अफवाह फैली कि हैदराबाद में भारत सरकार मुसलमानों को मार रही है। उस समय पाकिस्तानी अवाम का सारा गुस्सा कराची स्थित भारतीय उच्चायुक्त कार्यालय पर फूटता।

श्रीप्रकाश जी लिखते हैं कि काटन नाम का एक अंग्रेज हवाई जहाज में तमाम तरह के सैन्य उपकरण कराची से हैदराबाद भेजता थे। वहां पर निज़ाम अपनी रियासत हैदराबाद का भारत और पाकिस्तान किसी में विलय नहीं चाहते थे। जबकि यह मुमकिन नहीं था। दूसरे हैदराबाद का नवाब और उनके कुछ दरबारी भले मुस्लिम हों लेकिन अस्सी फीसदी जनसंख्या हिंदुओं की थी। उधर पाकिस्तान चाहता था कि हैदराबाद रियासत पाकिस्तान में अपना विलय कर ले। इसके अलावा वहां पर कासिम रिजवी ने रजाकारों का एक हथियारबंद संगठन बनाया था। इसे काबू करने के लिए भारत ने हैदराबाद पर सैन्य कार्रवाई की। पाकिस्तान इससे खूब क्रुद्ध हुआ और वहां की जनता कराची के भारतीय उच्चायुक्त कार्यालय को घेर कर प्रदर्शन करने लगी।

भारत के उच्चायुक्त दफ्तर ने काटन की हरकत तथा पाकिस्तानी अवाम की नाराजगी की सूचना दिल्ली भेजी लेकिन दिल्ली के नौकरशाहों ने टका-सा जवाब दे दिया कि इस तरह की हवाई सूचनाएं उच्चायुक्त दफ्तर न दे। ज़ाहिर है अब वहां की स्थितियों से निपटना उच्चायुक्त को अपने विवेक से ही था। काटन अपनी भारत-विरुद्ध कार्यवाहियों के कारण पाकिस्तान में हीरो बन गया था। इसी बीच 11 सितम्बर को कायदे आज़म ज़िन्ना साहब का इंतकाल हो गया और 13 को हैदराबाद पर कार्रवाई की गई। दोपहर तक यह सूचना कराची पहुंची तो करीब 4-5 हज़ार लोगों ने भारतीय उच्चायुक्त कार्यालय को घेर लिया। वे लिखते हैं कि घेर ही नहीं लिया एक तरह से दफ्तर पर धावा बोल दिया। उस वक़्त तो श्रीप्रकाश जी दफ्तर में नहीं थे वे शहर में कहीं गए हुए थे। इस धावा से उप उच्चायुक्त के तो हाथ-पाँव फूल गए उसने स्थानीय पुलिस से गुहार की मगर पुलिस असहाय थी। लोग कार्यालय के गेट पर चढ़े हुए थे।

ठीक उसी समय श्रीप्रकाश जी वापस लौटे। जैसे ही उनकी कार दफ्तर के सामने आकर रुकी वैसे ही उत्तेजित लोगों ने कार को घेर लिया और चीखने लगे- तुम हत्यारे हो, तुम लोग भारत में मुसलमानों को परेशान कर रहे हो। उनकी हत्या कर रहे हो। और वह भी उस समय जब हमारे पिता (ज़िन्ना) अभी-अभी गुजरे हों। श्रीप्रकाश जी लिखते हैं की तत्काल उन्होंने स्थिति को संभाला और कहा कि देखिये कायदे आज़म की मृत्यु से हम भी आपकी तरह ही दुखी हैं। वास्तव में तो हमारी सेना कल ही वहां जाने वाली थी पर एक दिन हमने भी कायदे आज़म की मौत का मातम मनाया, इस कारण हमारे सैनिक हैदराबाद नहीं गए। श्रीप्रकाश जी की बात का असर पड़ा। कुछ तो चुप हो गया और कुछ बोले- यह ठीक है, हमने भी ऐसा ही सुना है।

फिर श्रीप्रकाश जी ने उनसे पूछा- आप लोग मुझसे क्या चाहते हैं? उन्होंने उत्तर दिया- हम चाहते हैं कि आप हैदराबाद से हट जाएं। श्रीप्रकाश जी ने लिखा है कि मैंने फौरन अपने सहायक को बुलाया और कहा कि नेहरु जी को तार कर दो कि हैदराबाद से सेना हटा लें क्योंकि पाकिस्तान के लोग बहुत नाराज हैं। इतना सुनते ही सब शांत हो गए। इसके बाद बोले कि पाकिस्तान की सेना को कहिए कि वह भारत पर हमला करे। श्रीप्रकाश जी ने बड़ी शांति से जवाब दिया- भाइयो, यह निर्देश मैं कैसे दे सकता हूँ। इसके लिए तो आप लोग अपने प्रधानमत्री से जाकर बोलिए।

श्रीप्रकाश जी लिखते हैं कि इतना सुनते ही वे सब वहां से चले गए और प्रधानमंत्री नवाबज़ादा लियाकत अली का आवास जाकर घेर लिया और तोड़-फोड़ शुरू कर दी। लियाकत अली साहब बहर आए और बोले- क्या बात है? भीड़ ने कहा कि सेना को कहो भारत पर हमला करे। अब लियाकत अली भी मंजे हुए राजनीतिक थे। बोले- भारत इतना बड़ा मुल्क है उससे भिड़ने लायक सेना हमारे पास नहीं है। तुम लोग अभी सेना में भर्ती हो जाओ, मैं हमले का निर्देश देता हूँ। इतना सुनते ही वे सारे लोग छू-मंतर हो गए। यह होती है एक राजनीतिक की तात्कालिक समझ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *